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श्रद्धांग कर्मों के विविध रूप
१२५९ श्रतानियाँ नहीं रखता और उसके पास केवल औपासन अग्नि है तो वह उसी में होम करता है। जिसके पास न तो श्राग्नयाँ हैं और न गृह्याग्नि, वह ब्राह्मण के हाथ में होम करता है। मिता० ने मनु ( ३ । २१२ ) एवं एक गृह्यसूत्र के दो वचनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि श्रौताग्नियाँ रखनेवाला अन्वष्टक्य श्राद्ध, अष्टका के एक दिन वाले श्राद्ध, प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष में सम्पादनीय श्राद्ध (जो पंचमी से लेकर आगे किसी भी तिथि पर किया जाता है) एवं पार्वण श्राद्ध में होम दक्षिणाग्नि में करता है, किन्तु वह काम्य, आभ्युदयिक, एकोद्दिष्ट एवं अष्टका श्राद्धों में केवल पित्र्य ब्राह्मण के हाथ पर होम करता है; वे लोग, जो कोई पवित्र अग्नि नहीं प्रज्वलित करते, केवल पित्र्य ब्राह्मण के हाथ पर ही होम करते हैं। देखिए हेमाद्रि ( श्रा०, पृ० १३२८-१३४४) एवं बालम्भट्टी ( आचार०, पृ० ५१८ ) । टोडरानन्द ( श्राद्धसौख्य) ने मनु ( ३।२८२ ) का अनुगमन करते हुए कहा है कि अग्निहोत्री दर्श (अर्थात् अमावास्या) के अतिरिक्त किसी अन्य दिन पार्वण श्राद्ध नहीं कर सकता।
arateरण में आहुतियों की संख्या के विषय में भी गहरा मतभेद है । यही बात होम वाले देवों, देवों के नामों के क्रम एवं प्रयुक्त होनेवाले शब्दों के विषय में भी है। यह मतभेद अति प्राचीन काल से ही चला आया है । शतपथ ब्रा० (१।४।२।१२-१३ ) में आहुतियाँ केवल दो हैं और वे अग्नि एवं सोम के लिए दी जाती हैं और अन्त में 'स्वाहा' शब्द कहा जाता है। तै० ब्रा० ( १।३।१०।२-३ ) में आहुतियाँ तीन हैं, जो अग्नि, सोम एवं यम को दी जाती हैं और अन्त में 'स्वधा नमः' ('स्वाहा' नहीं) का शब्द क्रम आता है। इसी से कात्यायन (स्मृतिच०, श्रा०, पृ० ४५८) ने कहा है - 'स्वाहा' या 'स्वधा नमः' कहने, यज्ञोपवीत ढंग से और प्राचीनावीत ढंग से पवित्र सूत्र (जनेऊ) धारण करने और आहुतियों की संख्या के विषय में अपने-अपने सूत्र के नियम मानने चाहिए ।" ये मत-मतान्तर ब्राह्मणों के काल से लेकर सूत्रों, स्मृतियों एवं पुराणों तक चले आये हैं, जिन्हें संक्षेप में हम दे रहे हैं। आप० गृ० (२१1३-४) ने १३ आहुतियों की चर्चा की है, जिनमें ७ भोजन के साथ एवं ६ घृत के साथ दी जाती हैं। आश्व० श्री० (२।६।१२), आश्व० गृ० (४७ २०), शंख-लिखित (हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १३५४; मदन पा०, पृ० ५८९ ), काठकगृ० (६३।८९), नारदपुराण (पूर्वार्ध, २८।४८) एवं मार्कण्डेयपुराण (२८।४७-४८) ने केवल दो आहुतियों का उल्लेख किया है । बौ० ध० सू० (२।१४७ ), शांखा० श्री० (४१३ ), शांखा० गृ० (४।१।१३), विष्णुधर्मसूत्र (७३।१२), मनु ( ३।२११), वराहपुराण ( १४ | २१-२२), ब्रह्माण्डपुराण ( उपोद्यातपाद, ११।९३-९४) एवं विष्णुधर्मोत्तरपुराण (१।१४० ११९) आदि अधिकांश स्मृतियों एवं पुराणों ने तीन आहुतियों का उल्लेख किया है। यहाँ देवताओं एवं 'स्वाहा' तथा 'स्वधा' के क्रम के कई रूप आये हैं, जिनमें कुछ ये हैं-- पितरों के साथ संयुक्त सोम, कव्यवाह अग्नि, यम, अंगिरा; कुछ लोग क्रम यों देते हैं -- कव्यवाह अग्नि, पितरों के साथ सोम, यम वैवस्वत आदि। यह भी क्रम है कि अग्नि को आहुति अग्नि के दक्षिण ओर, सोम को उसके उत्तर एवं वैवस्वत (यम) को दोनों ओर के मध्य में दी जाती है ।
भोजन परोसने, ब्राह्मण भोजन एवं अन्य सम्बन्धित बातों की विधि के विषय में बहुत से नियम व्यवस्थित हैं । स्मृतिच० ( पृ० ४६५-४७०), हेमाद्रि ( पृ० १३६७- १३८४), श्रा० प्र० ( पृ० ११६ - १२२ ) एवं अन्य निबन्धों ने इन विषयों के विस्तृत नियम दिये हैं । याज्ञ० (१।२३७) ने व्यवस्था दी है कि होम करने के पश्चात् शेषांश पित्र्य ब्राह्मणों के पात्रों में परोसना चाहिए और पात्र चाँदी के हों तो अच्छा है । कात्यायन का कथन है कि उस कर्ता को, जिसके पास श्रोत या स्मार्त अग्नि नहीं होती, पित्र्य ब्राह्मणों में सबसे पुराने (वृद्ध) ब्राह्मण के हाथ पर ही मन्त्र के साथ
८८. स्वाहा स्वधा नमः सव्यमपसव्यं तथैव च । आहुतीनां तु या संख्या सावगम्या स्वसूत्रतः ॥ कात्यायन (स्मृतिचन्द्रिका, श्रा०, पृ० ४५८ ) ।
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