________________
वैदिक साहित्य में पितृ-पूजन संबन्धी विधान
१२४७ का दूध दुहता है। हे पिता, यह तुम्हारे लिए है और उनके लिए भी जो तुम्हारे बाद आते हैं (अर्थात् तुम्हारे वंशजों के लिए भी); हे पितामह, यह तुम्हारे एवं प्रपितामह और उनके लिए, जो तुम्हारे पश्चात् आयेंगे, है; हे पितर, आप अपने अपने भाग पाइए। हे इन्द्र, जो हम पर दृष्टि फेरते हैं, हम आपको प्रसन्न कर सकें, आइए अपने रथासन पर बैठकर हम लोगों की स्तुति पाकर आप अपने इच्छित स्थान को चले जायें। हे इन्द्र, अपने दो पिंगल घोड़ों को जोतिए। वे (पितर लोग) खा चुके हैं, सन्तुष्टि प्राप्त कर चुके हैं और प्यारे लोगों ने (दुष्ट) को भगा दिया है, ज्योतिष्मान् ऋषियों की बन्दना नवीनतम स्तोत्र से हो चुकी है, हे इन्द्र, अपने पिंगल वर्ण वाले घोड़ों को जोत लीजिए। पितरों ने खा लिया है, पितरों ने आनन्द मना लिया है, वे प्रसन्न हो चुके हैं और अपने को पवित्र कर लिया है। हे सोमप्रिय पितरो, अपने गम्भीर एवं पुराने मार्गों से चले जाइए। अब आप लोग जिसे भली भाँति जानते हैं उस यम के यहाँ पहुँचे और उसके साथ आनन्द मनाये।"
तै० ब्रा० (११२।१०) में पिण्डपितृयज्ञ का वर्णन विस्तार से हुआ है। हम उसकी कतिपय बातें चुनकर नीचे दे रहे हैं-"दर्शष्टि के एक दिन पूर्व यहाँ (पिण्डपितृयज्ञ का) कृत्य सम्पादित होता है। कर्ता कहता है--'पितरों द्वारा पीये गये सोम को स्वधा नमः।' वह कहता है--‘कव्य ढोनेवाले अग्नि को स्वधा नमः ।' (इसके द्वारा)वह पितरों की अग्नि को प्रसन्न करता है। वह (अग्नि में) तीन आहुतियाँ डालता है; वह (पृथ्वी पर बिछाये हुए दर्शों पर). तीन पिण्ड रखता है। (ये) इस प्रकार छः की संख्या में आते हैं। वास्तव में, ऋतुएँ छः हैं। वह (उनके द्वारा) ऋतुओं को प्रसन्न करता है। वास्तव में ऋतु ही दिव्य या देवतुल्य पितर हैं।...दर्भ एक काट में काटे गये हैं; पितर लोग सदा के लिए चले-से गये हैं। वह (पिण्डों को) तीन बार रखता है। पितर लोग यहाँ से तीसरे लोक में हैं। वह (इसके द्वारा) उन्हें प्रसन्न करता है। वह (कर्ता) दक्षिण से उत्तर की ओर अपना मुख कर देता है, क्योंकि पितर लोग लज्जाल हैं। वह तब तक अपने सुख को हटाये रहता है जब तक कि (पिण्डों के भात से) भाप उठना बन्द न हो जाय ; क्योंकि पितर लोग भाप से अपना भाग लेते हैं; उसे केवल पिण्डनांध लेनी चाहिए, मानो वह न खाने या खाने के बराबर है। (श्राद्ध-कृत्य से) जाते समय पितर लोग शूर पुत्र को ले जाते हैं या उसका दान करते हैं। वह वस्त्र का एक खण्ड (पिण्डों पर रखने के लिए) फाड़ लेता है। क्योंकि पितरों का भाग वह है जिसे (अर्पित होने पर) वे ले लेते हैं। (इसके द्वारा) वह पितरों को (अलग-अलग) भाग देता है (और उन्हें चले जाने को कहता है)। यदि कर्ता ढलती अवस्था में (५० वर्ष से आगे की अवस्था में) रहता है तो वह छाती के बाल काटता है (दशा को नहीं देता)। उस अवस्था (अर्थात् ५० वर्ष से ऊपर की अवस्था) में वह पितरों के पास रहता है। वह नमस्कार करता है, क्योंकि पितरों को नमस्कार प्रिय है। हे पितर, शक्ति के लिए तुम्हें नमस्कार; जीवन के लिए तुम्हें नमस्कार; स्वधा के लिए तुम्हें नमस्कार; उत्साह के लिए तुम्हें नमस्कार; घोर (भयानकता) के लिए तुम्हें नमस्कार; तुम्हें नमस्कार। यह (पिण्डपितृयज्ञ) वास्तव में मनुष्यों का यज्ञ (मृतात्माओं के लिए यज्ञ) है, और अन्य यज्ञ देवों के लिए हैं।" तै० ब्रा० (१।४।१०) में साकमेध के साथ सम्पादित पितृयज्ञ की प्रशंसा है (२ में) और आगे ऐसा कहा गया है कि ऋतु पितर हैं और उन्होंने अपने पिता प्रजापति का पितृ-यज्ञ किया। यह उक्ति मनु एवं कुछ निबन्धों की उस व्यवस्था को प्रमाणित करती है कि ऋतु पितरों के समान हैं और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।
शतपथब्राह्मण (२।४।२) में पिण्डपितृयज्ञ का अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण वर्णन मिलता है। हम कुछ अनावश्यक बातों को छोड़कर उसे उद्धृत कर रहे हैं--"जब चन्द्र पूर्व या पश्चिम में नहीं दिखाई पड़ता, तब वह (दर्श यज्ञ का कर्ता) प्रत्येक मास में पितरों को भोजन देता है।... . वह ऐसा अपराल में करता है। पूर्वाहृ देवों का है, मध्याह्न मनुष्यों का है और अपराह्म पितरों का है। गार्हपत्य अग्नि के पृष्ठ भाग में बैठकर, दक्षिणाभिमुख होकर एवं यज्ञोपवीत दाहिने कंधे पर रखकर वह (गाड़ी से अर्पण के लिए) सामान ग्रहण करता है। इसके उपरान्त वह वहाँ से उठता है और दक्षिणाग्नि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org