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श्राद्ध में मांस भोजन का विधान तथा परिहार
१२४५ में भी इसी प्रकार का वचन आया है जो श्राद्ध के समय आमंत्रित सभी ब्राह्मणों के लिए वैसी ही बात कहता है। कूर्म ० (२।२२।७५ ) ने व्यवस्था दी है कि वह ब्राह्मण, जो श्राद्ध कर्म में नियुक्त रहता है और अर्पित मांस का भक्षण नहीं करता, तो वह २१ जन्मों तक पशु होता है। मनु ( ३।२५७ ) का कहना है कि निम्नलिखित वस्तुएँ स्वभावतः श्राद्ध में सम्यक् आहुतियाँ हैं -- (नीवार आदि से निर्मित) भोजन जो वानप्रस्थ के योग्य होता है, दूध, सोमरस, वह मांस जिससे दुर्गन्ध नहीं निकलती और बिना बनाया गया नमक । सामान्यतः संन्यासियों के लिए मांस खाना आवश्यक नहीं था; किन्तु वसिष्ठ ने श्राद्ध के समय उन्हें भी खाने के लिए बल दिया है ।
मनु ( ३।२६७-२७२), याज्ञ० ( १।२५८-२६०), विष्णुध० सू० (८०1१), अनुशासन ० ( अध्याय ८८ ), श्राद्धसूत्र ( कात्या० कण्डिकाएँ, ७-८ ), कूर्म० (२/२०१४०-४२ एवं २९।२-८), वायु० (८३1३-९), मत्स्य ० ( १७।३१३५), विष्णुपुराण ( ३।१६।१-३), पद्म० ( सृष्टि० ९।१५८ - १६४), ब्रह्माण्ड० ( २२०।२३ - २९), विष्णुधर्मोत्तर ( १११४११४२ - ४७ ) ने विस्तार के साथ श्राद्ध भोजन में विभिन्न प्रकार के पशुओं के मांस-प्रयोग से उत्पन्न पितरों की सन्तुष्टि का वर्णन किया है। याज्ञ० का वर्णन संक्षिप्त है और हम उसे ही नीचे दे रहे हैं । याज्ञ० ( १।२५८ - २६१ ) का कथन है-- पितर लोग यज्ञिय भोजन ( यथा -- चावल, फल, मूल आदि) से एक मास; गोदुग्ध एवं पायस से एक वर्ष; २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १० एवं ११ महीनों तक क्रम से पाठीन (मछली), लोहित हरिण, भेड़, पक्षी ( यथा तित्तिर), बकरा, चितकबरे हरिण, कृष्ण हरिण, रुरु हरिण, बनले सूअर एवं खरगोश के मांस से ; खड्ग, महाशल्क मछली के मांस, मधु, यति के योग्य भोजन, लोहित बकरे, महाशाक ( कालशाक) एवं वार्षीणस के मांस से अनन्त काल तक तृप्त होते हैं ।" कुछ ग्रन्थों के भिन्न मत हैं। मनु ( ३।२६७ एवं २७१), कात्यायन (श्राद्धसूत्र, ७) ने कहा है कि ग्राम के अन्न, यथा चावल, माष आदि से बने भोजन से या जंगली खाद्य-पदार्थ, यथा नीवार या फल-मूल से सन्तुष्टि केवल एक मास की होती है तथा वार्षीणस के मांस से केवल १२ वर्षों तक ( सदैव के लिए नहीं ) । विष्णुध० (८०1१० ) एवं मनु ( ३।२७० ) ने भैंस एवं कछुए के मांस से क्रम से १० एवं ११ मास की सन्तुष्टि की ओर संकेत किया है। हेमाद्रि ( श्र० १० ५९०) ने कहा है कि कालविषयक बातों को यथाश्रुत शाब्दिक रूप में नहीं लेना चाहिए, केवल इतना ही स्मरण रखना यथेष्ट है कि मांस-प्रकार के अर्पण से उसी प्रकार की अधिकतर सन्तुष्टि होती है । पुलस्त्य ( मिता० एवं अपरार्क, पृ० ५५५ ) ने व्यवस्था दी है कि ब्राह्मण द्वारा सामान्यतः श्राद्ध में यति-भोजन अर्पण करना चाहिए, क्षत्रिय या वैश्य द्वारा मांस अर्पण, शूद्र द्वारा मधु का अर्पण करना चाहिए। (इन के अतिरिक्त) सभी वर्गों द्वारा अजित भोजन का अर्पण करना चाहिए। चाहे कोई भी कर्ता हो, भोजन करने वाले केवल ब्राह्मण ही होते हैं; तो इससे स्पष्ट है कि क्षत्रिय या वैश्य द्वारा आमन्त्रित ब्राह्मण को मांस खाना पड़ता था । तथापि यह ज्ञातव्य है कि मिता० एवं कल्पतरु (११००-११२० ई० के लगभग प्रणीत) ने स्पष्टतः यह नहीं कहा है कि कलियुग में कम-से-कम ब्राह्मणों के लिए मांस-प्रयोग सर्वथा वर्जित है । हमने यह बहुत पहले देख लिया है ( देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २ अध्याय २ ) कि ऋग्वेद एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के काल में, जब कि पशुयज्ञ निर्बाव होता था, एक अन्तर्हित भावना यह थी कि मित्राओं या भात का अर्पण जब देवों के प्रति भक्तिपूर्वक होता था तो वह देवों के अनुग्रह की प्राप्ति के लिए मांसा
७६. हविष्यानेन वै मासं पायसेन तु वत्सरम् । मात्स्यहारिणकौर भ्रशाकुनच्छागपार्षतैः ॥ ऐणरौरववाराशामसिंर्यथाक्रमम् । मासवृद्ध्याभितृप्यन्ति वत्तैरिह पितामहाः । खड्गामिषं महाशल्कं मधु मुन्यन्नमेव वा । लौहामिषं महाशाकं मांसं वाणसस्य च ॥ यद्ददाति गयास्थश्च सर्वमानन्त्यमश्नुते । याज्ञ० (१।२५८-२६१) । मिता० ने 'महाशाक' को कालशाक कहा है।
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