________________
१२४६
धर्मशास्त्र का इतिहास
र्पण के समान ही था। कालान्तर में यह भावना तीव्र से इतनी तीव्रतर होती चली गयी कि मनु (५।२७-४४ वं ५।४६४७) एवं वसिष्ठ में दो मत प्रकट हो गये (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय २२)। क्रमशः १२वीं एवं १३वीं शताब्दी के आते-आते मधपर्क एवं श्राद्धों में मांसार्पण सर्वथा त्याज्य माना जाने लगा और आगे चलकर वह कलियुग में वर्त्य हो गया (देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ३४)। आज के भारत में केवल उत्तरी भाग में, जहाँ भोजन में मछली का प्रयोग होता है (बंगाल एवं मिथिला में), श्राद्ध में मांसार्पण होता है, अन्यत्र नहीं। सम्भवत: बृहन्नारदीय पुराण के अनुसार ही उत्तर भारत का ऐसा आचार है, क्योंकि उसमें आया है कि देशाचार के अनुसार मधु, मांस एवं अन्य पदार्थ दिये जा सकते हैं। पृथ्वीचन्द्रोदय ने ऐसी ही व्याख्या की है।
मनु (५।११-१८) में ऐसे पशुओं, पक्षियों एवं मछलियों की लम्बी खाद्य-सूची पायी जाती है जो मांसभक्षियों के लिए भी वजित थी।
दरिद्रता की अवस्था में, कुछ पुराणों, यथा विष्णु० (३।४१२४-३०), वराह० (१३।५३-५८) आदि ने बड़ी र्वक व्यवस्था दी है कि बड़ा भोज न करके या मांस न खिलाकर दरिद्र लोग केवल असिद्ध अन्न, कुछ जंगली शाकपात या कुछ दक्षिणा आदि दे सकते हैं, या कुछ (७ या ८) तिल ही अंजलि में जल लेकर किसी ब्राह्मण को दे सकते हैं, या किसी गाय को दिन भर के लिए धास दे सकते हैं; किन्तु यदि इनमें से कुछ भी न हो सके तो दरिद्र कर्ता को चाहिए कि वह वृक्षों के झंड में जाकर, हाथ उठाकर दिक्पालों एवं सूर्य से निम्न शब्दों में प्रार्थना करे-'मेरे पास न तो धन है और न रुपये-पैसे, जिनसे मैं पितरों का श्राद्ध कर सकूँ, मैं पितरों को प्रणाम करता हूँ, पितर लोग मेरी भक्ति से सन्तुष्ट हों; मैंने ये हाथ आकाश (अर्थात् वायु के मार्ग) में फैला दिये हैं।'
पार्वण श्राद्ध अब हम पार्वण श्राद्ध की विधि का वर्णन उपस्थित करेंगे, क्योंकि वही अन्य श्राद्धों यहाँ तक कि अष्टकाओं की भी विधि या प्रकृति है। इस विषय में सूत्रकाल से लेकर अब तक विभिन्न मत प्रकाशित हुए हैं। यद्यपि प्रमुख बातें एवं स्तर सामान्यतः समान ही हैं, किन्तु प्रयुक्त मन्त्रों, विस्तारों एवं कतिपय विषयों के क्रम में भेद पाया जाता है। कात्यायन (श्राद्धसूत्र) ने कहा है कि 'स्वाहा' या 'स्वधा नमः' के प्रयोग, यज्ञोपवीत या प्राचीनावीत ढंग से जनेऊ पहनने एवं आहुतियों की संख्या आदि के विषय में व्यक्ति को अपने सूत्र की आज्ञा माननी चाहिए।
अत्यन्त प्राचीन वेद-वचनों में पित-यज्ञ के संकेतों का पता चलाना मनोरंजक चर्चा होगी। तै० सं० (११८५।१-२) में चार चातुर्मास्यों में तीसरे साकमेध के अन्तर्गत महापितृयज्ञ का उल्लेख है--“वह पितरों के साथ सोम को षट्कपाल पुरोडाश अर्पित करता है बहिषद् (दर्भ पर या यज्ञ में बैठे हुए) पितरों को भुना अन्न देता है, अग्निष्वात्त पितरों के लिए वह अभिवान्या गाय (जिसका बछड़ा मर गया हो और जिसे दूसरे बछड़े से दुहने का प्रयत्न किया जाय)
७७. 'पार्वण' एवं 'एकोद्दिष्ट' आदि शब्दों की व्याख्या पहले की जा चकी है। अमावास्या वाला श्रास नित्य है (गौतम० १५।१) किन्तु किसी मास के कृष्ण पक्ष की किन्हीं तिथियों में किये गये श्राद्ध काम्य कहलाते हैं। और देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय २९)।
७८. तथा च कात्यायनः । स्वाहा स्वधा नमः सव्यमपसव्यं तथैव च । आहुतीनां तु या संख्या सावगम्या स्वसूत्रतः॥ मदनपा० (पृ० ५९२); स्मृतिच० (श्रा०, पृ.० ४५८)। हेमाद्रि (श्रा०, पृ० ३५६) में आया है--'एते देवादिविषयो यदीयेषु कल्पसूत्रगृह्यसूत्रेषूक्तास्ते तदीया एवेति व्यवस्थया बोद्धव्याः।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org