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मरण काल के कृत्य
( पृ० १५२ - १५३ ) में उन मन्त्रों का (जो वैदिक नहीं हैं ) उल्लेख है जो दानों के समय कहे जाते हैं । अन्त्येष्टिपद्धति, अन्त्यकर्मदीपक आदि ने व्यवस्था दी है कि जब व्यक्ति आसन्नमृत्य् हो, तो उसके पुत्र या सम्बन्धियों को चाहिए कि वे उससे व्रतोद्यापन, सर्वप्रायश्चित्त एवं दस दानों के कृत्य करायें, किन्तु यदि मरणासन्न इन कृत्यों को स्वयं करने में अशक्त हो तो पुत्र या सम्बन्धी को उसके लिए ऐसा स्वयं कर देना चाहिए। जब व्यक्ति संकल्पित व्रत नहीं कर पाता तो मरते समय वह व्रतोद्यापन कृत्य करता है। देखिए अन्त्यकर्मदीपक ( पृ० ३-४ ) । संक्षेप में व्रतोद्यापन यों है -- पुत्र या सम्बन्धी मरणासन्न व्यक्ति को स्नान द्वारा या पवित्र जल से मार्जन करके या गंगा-जल पिलाकर पवित्र करता है, स्वयं स्नानसन्ध्या से पवित्र हो लेता है, दीप जलाता है, गणेश एवं विष्णु की पूजा - वन्दना करता है, पूजा की सामग्री रखकर संकल्प करता है, निमन्त्रित ब्राह्मण को सम्मानित करता है और पहले से संकल्पित सोना उसे देता है और ब्राह्मण घोषित करता है -- "सभी व्रत पूर्ण हों । उद्यापन ( व्रत पूर्ति) के फल की प्राप्ति हो ।" सर्वप्रायश्चित्त में पुत्र चार या तीन विद्वान् ब्राह्मणों या एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण को ६, ३ या १॥ वर्ष वाले प्रायश्चित्तों के निष्क्रय रूप में सोना आदि का दान देता है और इसकी घोषणा करता है और वह आशौच के उपरान्त प्रायश्चित्त करता है । मरणासन्न व्यक्ति को या पुत्र या सम्बन्धी को सर्वप्रायश्चित्त करना पड़ता है। वह क्षौरकर्म करके स्नान करता है, पंचगव्य पीता है, चन्दनलेप एवं अन्य पदार्थों से एक ब्राह्मण को सम्मानित करता है, गोपूजा करके या उसके स्थान पर दिये जानेवाले धन की पूजा करके संचित पापों की ओर संकेत करता है और बछड़ा सहित एक गौ का दान या उसके स्थान पर धन का दान करता है।' सर्वप्रायश्चित्त के उपरान्त दश-दान होते हैं, जिनकी चर्चा ऊपर हो चुकी है। गरुड़पुराण (२1४1७९ ) ने महादान संज्ञक अन्य दानों की व्यवस्था दी है, यथा— तिल, लोहा, सोना, रूई, नमक, सात प्रकार के अन्न, भूमि, गौ; कुछ अन्य दान भी हैं, यथा-- छाता, चन्दन, अँगूठी, जलपात्र, आसन, भोजन, जिन्हें पददान कहा जाता है। गरुड़पुराण (२|४|३७ ) के मत से यदि मरणासन्न व्यक्ति आतुर संन्यास के नियमों के अनुसार संन्यास ग्रहण कर लेता है तो वह आवागमन (जन्म-मरण) से छुटकारा पा जाता है।
आदिकाल से ही ऐसा विश्वास रहा है कि मरते समय व्यक्ति जो विचार रखता है, उसी के अनुसार दैहिक
पार कर जाते हैं । और देखिए स्कन्दपुराण ( ६।२२६।३२-३३) जहाँ वैतरणी की चर्चा है; 'मृत्युकाले प्रयच्छन्ति ये धेनुं ब्राह्मणाय वै । तस्याः पुच्छं समाश्रित्य ते तच तां नृप
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७. संकल्प यह है -- ' अत्र पृथिव्यां जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तकदेशे विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरा.... अमुकतिथौ अमुकगोत्रः अमुकशर्माहं ममात्मनः ( मम पित्रादेः ) व्रतग्रहणदिवसादारभ्य अद्य यावत्फलाभिलाषादिगृहीतानां निष्कामतया गृहीतानां च अमुकामुकव्रतानामकृतोद्यापनदोषपरिहारार्थं श्रुतिस्मृतिपुराणोक्ततत्तद्वतजन्यसांगफलप्राप्त्यर्थं विष्ण्वादीनां तत्तद्देवानां प्रीतये इदं सुवर्णमग्निदैवतम् (तदभावे इदं रजतं चन्द्रदैवतम् ) अमुकगोत्रायामुकशर्मणे ब्राह्मणाय दास्ये ओं तत्सत् न मम इति संकल्प्य ... आदि-आदि ( अन्त्यकर्मदीपक, पृ० ४) ।
८. देशकालौ संकीर्त्य मम ( मत्पित्रादेव) ज्ञाताज्ञातकामाकामसकृदसकृत् कायिकवाचिकमानसिकसांसर्गिक -- स्पृष्टास्पृष्ट - भुक्ताभुक्त — पीतापीतसकलपातकानुपातकोपपातकलघुपातकसंकरीकरणमलिनीकरणापात्रीकरणजातिभ्रंशकरप्रकीर्णकाविनानाविधपातकानां निरासेन देहावसानकाले देहशुद्धद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थमिमां सर्वप्रायश्चित्तप्रत्याम्नायभूतां यथाशक्त्यलंकृतां सवत्सां गां रुद्रदेवताममुकगोत्रायामुकशर्मणे ब्राह्मणाय तुम्यमहं संप्रददे ओं तत्सत् न मम । अ० क० दी० ( पृ० ५ ) ।
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