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धर्मशास्त्र का इतिहास का उल्लेख किया है जहाँ कीट, पतंग आदि जाते हैं। भगवद्गीता (८।२३-२५) ने भी उपनिषदों के इन वचनों को सूक्ष्म रूप में कहा है-"मैं उन कालों का वर्णन करूँगा जब कि भक्तगण कभी न लौटने के लिए इस विश्व से विदा होते हैं। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण सूर्य के छ: मास; जब ब्रह्मज्ञानी इन कालों में मरते हैं तो ब्रह्मलोक जाते हैं। धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन सूर्य के छ: मासों में मरनेवाले भक्तगण चन्द्रलोक में जाते हैं और पुनः लौट आते हैं। इस विश्व में ये दो मार्ग जो प्रकाशमान एवं अंधकारमय हैं सनातन हैं। एक से जानेवाला कमी नहीं लौटता किंतु दूसरे से जानेवाला लौट आता है।" वेदान्तसूत्र (४।३।४-६) ने 'प्रकाश', 'दिन' आदि शब्दों को यथाश्रुत शाब्दिक अर्थ में लेने को नहीं कहा है। अर्थात् उसके मत से ये मार्गों के लक्षण या स्तर नहीं हैं, प्रत्युत ये उन देवताओं के प्रतीक हैं जो मृतात्माओं को सहायता देते हैं और देवलोक एवं पितृलोक के मार्गों में उन्हें ले जाते हैं, अर्थात् वे आतिवाहिक एवं अभिमानी देवता हैं। शंकर ने वेदान्तसूत्र (४।२।२० अतश्चायनेपि दक्षिणे) की व्याख्या में बताया है कि जब भीष्म ने उत्तरायण की बाट जोही तो इससे यही समझना चाहिए कि वहाँ अचिरादि की प्रशस्ति मात्र है-जो ब्रह्मज्ञानी है, वह यदि दक्षिणायन में मर जाता है तो भी वह अपने ज्ञान का फल पाता है, अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त करता है। जब भीष्म ने उत्तरायण की बाट जोही तो ऐसा करके उन्होंने केवल लोकप्रसिद्ध प्रयोग या आचरण को मान्यता दी और उन्होंने यह भी प्रकट किया कि उनमें यह शक्ति भी थी कि वे अपनी इच्छाशक्ति से ही मर सकते हैं, क्योंकि उनके पिता ने उन्हें ऐसा वर दे रखा था। और देखिए याज्ञवल्क्यस्मृति (३।९१९३-१९६)।" शंकर एवं वेदान्तसूत्र के वचनों के रहते हुए भी लोकप्रसिद्ध बात यही रही है कि उत्तरायण में मरना उत्तम है (बौधायनपितृमेधसूत्र २।७।२१ एवं गौतमपितृमेधसूत्र २।७।१-२)।
. अन्त्येष्टि एक संस्कार है। यह द्विजों द्वारा किये जानेवाले सोलह या इससे भी अधिक संस्कारों में एक है और मनु (२०१६), याज्ञ० (१।१०) एवं जातूकर्ण्य (संस्कारप्रकाश, पृ० १३५ एवं अन्त्यकर्मदीपक, पृ० १) के मत से यह वैदिक मन्त्रों के साथ किया जाता है। ये संस्कार पहले स्त्रियों के लिए भी (आश्वलायनगृह्यसूत्र १।१५।१२, १।१६।६, १।१७।११ एवं मनु २।६६) होते थे किन्तु बिना वैदिक मन्त्रों के (किन्तु विवाह-संस्कार में वैदिक मन्त्रोच्चारण होता है) और शूद्रों के लिए (मनु १०।१२७ एवं याज्ञ०१।१०) भी बिना वैदिक मन्त्रों के। बौ०पितृ मेघसूत्र (३।११४) का कथन है कि प्रत्येक मानव के लिए दो संस्कार ऋण-स्वरूप हैं (अर्थात् उनका सम्पादन अनिवार्य है) और वे हैं जन्म-संस्कार एवं मृतक-संस्कार। दाह-संस्कार तथा श्राद्ध आदि आहिताग्नि (जो श्रौत अग्निहोत्र अर्थात् वैदिक यज्ञ करता है) एवं स्मार्ताग्नि (जो केवल स्मार्त अग्नि को पूजता है अर्थात् स्मृतियों में व्यवस्थित धार्मिक कृत्य करता है) के लिए भिन्न-भिन्न रीतियों से होते हैं, तथा उन लोगों के लिए भी जो श्रौत या स्मार्त कोई अग्नि नहीं रखते। जो स्त्री है, बच्चा है, परिव्राजक है, जो दूर देश में मरता है, जो अकाल-मृत्य पाता है या आत्महत्या करता है या दुर्घटनावश
१३. 'देवयान' एवं 'पितयान' के विषय में देखिए ऋग्वेद में भी, यथा--३१५८।५, ७.३८1८, ७७६.२% १०५११५; १०।९८०११; १०॥१८१, १०।२७। और देखिए तैत्तिरीय ब्राह्मण (२।६।३।५); शतपथब्राह्मण (११९।३।२); बृहदारण्यकोपनिषद् (१।५।१६)।
१४. निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योवितो विधिः। तस्य शास्त्रेऽधिकारोऽस्मिन शेयो नान्यस्य कस्यचित् ।। मनु २३१६; ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा वर्णास्त्वाद्यास्त्रयो द्विजाः । निषेकाद्याः श्मशानान्तास्तेषां वै मन्त्रतः क्रियाः॥ याश० (१।१०); आधानपुंससीमन्तजातनामानचौलकाः। मौजी व्रतानि गोदानं समावर्तविवाहकाः॥ अन्त्यं चैतानि कर्माणि प्रोच्यन्ते षोडशव तु॥ जातकर्ण्य (संस्कारप्रकाश, पृ० १३५ एवं अन्त्यकर्मदीपक, पृ० १)।
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