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दीर्घकाल के बाद का मरणाशौच
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मात्र से शुद्धि प्राप्त हो जाती है और यही नियम गर्भपात में सगोत्र सपिण्डों के लिए लागू होता है । " षडशीति (३५) में भी ऐसा ही आया है।" मिता० ने बृहस्पति के दो श्लोकों का हवाला देकर 'देशान्तर' की परिभाषा दी है- 'जहाँ . बड़ी नदी हो या पर्वत हो, जो एक देश को दूसरे से पृथक् करता हो या जहाँ की भाषाओं में अन्तर हो, वह देशान्तर कहलाता है। कुछ लोगों का कथन है कि साठ योजनों का अन्तर देशान्तर का कारण होता है, कुछ लोग चालीस या तीस योजनों के अन्तर की सीमा बताते हैं ।"" इस विषय में मतैक्य नहीं है कि देशान्तर के लिए इन तीनों (महानदी, पर्वत एवं भाषा-भेद ) का साथ-साथ रहना परमावश्यक है, या इनमें कोई एक पर्याप्त है या ६०, ४० या ३० योजन का अन्तर आवश्यक है या किसी देशान्तर में दस दिनों में समाचार पहुँच जाना ही उसके देशान्तरत्व का सूचक है। स्मृतिच० एवं षडशीति ( ३७ ) के मत से उपर्युक्त तीन में कोई एक भी पर्याप्त है, किन्तु अन्यों के विभिन्न मत हैं। शुद्धिविवेक के मत से ६० योजनों की दूरी देशान्तर के लिए पर्याप्त है, किन्तु ६० योजनों के भीतर एक महानदी, एक पर्वत - एवं भाषा-भेद सम्मिलित रूप से देशान्तर बना देते हैं। स्मृत्यर्थसार का कथन है कि स्मृतियों, पुराणों तथा तीर्थ- सम्बन्धी ग्रन्थों में देशान्तर विभिन्न रूपों में वर्णित है । 'योजन' के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय ५ ।
घर्मसिन्धु ( पृ० ४१५) के मत से यदि आहिताग्नि देशान्तर में मर जाय और बहुत दिन व्यतीत हो जायँ तथा उसकी अस्थियाँ न प्राप्त हों और ऐसी स्थिति में जब पलाश की पत्तियों से उसका आकृतिदहन हो तब भी दस दिनों का आशीच होता है। इसी प्रकार जो आहिताग्नि नहीं है तथा उसकी मृत्यु पर कोई आशौच नहीं मनाया गया है और बाद को उसका पुतला जलाया जाय तो पुत्र एवं पत्नी को १० दिनों का आशौच करना पड़ता है, किन्तु जब संदेश मिलने पर उन्होंने दस दिनों का आशौच मना लिया है तो आकृतिदहन पर तीन दिनों का आशौच करना होता है । अन्य सपिण्डों को इन्हीं परिस्थितियों में क्रम से तीन दिनों का आशौच या स्नान मात्र पर्याप्त है ।
गृह्यकारिका, स्मृत्यर्थसार ( पृ० ९४), धर्मसिन्धु एवं अन्य ग्रंथों में ऐसा आया है कि यदि कोई व्यक्ति परदेश चला जाय और उसकी जीवितावस्था के विषय में कोई समाचार न मिले तो उसके पुत्र एवं अन्य सम्बन्धियों को, समाचार न मिलने के बीस वर्षों के पश्चात्, या जब युवावस्था या १५ वर्ष की अवस्था में वह चला गया हो, या जब वह अधेड़ अवस्था या १२ वर्ष की अवस्था में चला गया हो या बुढ़ौती में चला गया हो, तो चान्द्रायण व्रत या ३० कृच्छ्र
१३. यस्तु नद्यादिव्यवहिते देशान्तरे मृतस्तत्सपिण्डानां दशाहादूध्वं मासत्रयादर्वागपि सद्यः शौचम् । देशान्तरमृतं श्रुत्वा क्लोबे वैखानसे यतौ । मृते स्नानेन शुध्यन्ति गर्भस्रावे च गोत्रिणः ॥ इति । मिताक्षरा ( याज्ञवल्क्यस्मृति, ३।२१) ।
१४. ज्ञातिमृत्यौ यवाशौचं दशाहात्तु बहिः श्रुतौ । एकवेश इदं प्रोक्तं स्नात्वा देशान्तरे शुचिः ॥ षडशीति (३५) । १५. देशान्तरलक्षणं च बृहस्पतिनोक्तम् । महानद्यन्तरं यत्र गिरिर्वा व्यवधायकः । वाचो यत्र विभिद्यन्ते तद्देशान्तरमुच्यते ॥ देशान्तरं वदन्त्येके षष्टियोजनमायतम् । चत्वारिंशद्ववन्त्यन्ये त्रिंशदन्ये तथैव च ॥ इति । मिता० ( याश० ३।२१) । प्रथम श्लोक को अपरार्क (१० ९०५) एवं स्मृतिच० (आशौच, पृ० ५२ ) ने वृद्धमनु का माना है और शुद्धिप्रकाश ( पृ० ५१ ) ने बहन्मनु का माना है। स्मृतिच० (५० ५३) ने बृहन्मनु का एक अन्य पाद जोड़ा है और यही बात षडशीति (श्लोक ३७) की टीका एवं शुद्धिप्र० ( पृ० ५१) में भी पायी जाती है, यथा-देशनामनदीभेदो निकटे यत्र वं भवेत् । तेन वेशान्तरं प्रोक्तं स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥ वशरात्रेण या वार्ता यत्र न भूयतेऽथवा । वाश्वलायन (२०/८७) में आया है -- पर्वतश्च (स्य ?) महानद्या व्यवधानं भवेद्यदि । त्रिंशद्योजनदूरं वा सा:स्नानेन शुध्यति ॥
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