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मरणाशीच के विभिन्न अन्तर
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हुए भी
वर्णी नारियों से विवाह करते हैं (अनुलोम विवाह ) । उदाहरणार्थ, दक्ष ( ६।१२ ) के मत से यदि कोई ब्राह्मण चारों वर्णों की स्त्रियों से विवाह करता है तो इन स्त्रियों के जनन एवं मरण पर आशौच क्रम से १०, ६, ३ एवं १ दिन का होता है । विष्णु० (२२।२२ एवं २४ ) ने व्यवस्था दी है कि यदि क्षत्रिय के वैश्य या शूद्र वर्णों के सपिण्ड हों तो उनके जनन एवं मरण पर आशौच क्रम से ६ या ३ दिनों का होता है, यदि वैश्य का शूद्र सपिण्ड हो तो अशुद्धि ६ दिनों के उपरान्त दूर हो जाती है । किन्तु जब निम्न वर्णों के सपिण्ड उच्च वर्णों के हों तो उनका आशौच उच्च वर्णों के जनन एवं मरण के आशौच के साथ समाप्त हो जाता है। यही व्यवस्था लघु-हारीत ( ८४ = आपस्तम्बमृत ९ | १३) में भी है । अन्य स्मृतियाँ एवं पुराण, यथा कूर्म ० ( उत्तरार्धं २३।३०-३६), विभिन्न मत देते हैं ( हारलता पृ० ५४-६० एवं स्मृतिमुक्ताफल, पृ० ४९५ - ४९६ ) । मदनपारिजात ( पृ० ४२५-४२६ ) के अनुसार कुछ लोगों का कथन है कि इन विभिन्न व्यवस्थाओं को छोड़ देना चाहिए, या इन्हें देशाचार के अनुसार उचित स्थान देना चाहिए या इन्हें इनसे प्रभावित व्यक्ति के गुणों एवं अवगुणों के आधार पर समझ-बूझ लेना चाहिए या इन्हें आपदों आदि दिनों के अनुसार प्रयुक्त होने या न होने योग्य मान लेना चाहिए ।
मिता० ( याज्ञ० ३।२२ ) के मत से प्रतिलोम जातियों के लोगों की आशौचावधियाँ नहीं होतीं, वे लोग मल-मूत्र के त्यागोपरान्त किये जानेवाले शुद्धि-सम्बन्धी नियमों के समान ही शुद्धीकरण कर लेते हैं । स्मृतिमुक्ताफल ( पृ० ४९५ ) आदि ग्रन्थ मनु (१०।४१ ) पर निर्भर रहते हुए कहते हैं कि प्रतिलोम जातियाँ शूद्र के समान हैं और शूद्रों के लिए व्यवस्थित आशौच का पालन करती हैं।" यही बात आदिपुराण को उद्धृत कर हारलता ( पृ० १२) ने कही है। स्मृत्यर्थसार ( पृ० ९२ ) का कहना है कि प्रतिलोम विवाहों से उत्पन्न लोगों को प्रायश्चित्त करने के उपरान्त आशौच करना चाहिए, किन्तु यदि वे प्रायश्चित्त नहीं करते तो उनके लिए आशौच नहीं होता ।
हमने गत अध्याय में देख लिया है कि किस प्रकार शव को उठाना एवं उसे जलाना सपिण्डों का कर्तव्य है, और हमने यह भी देख लिया है कि प्राचीन काल में दरिद्र ब्राह्मण के शव को ढोना प्रशंसायुक्त कार्य समझा जाता रहा है (पराशर० ३।३९-४०) । किन्तु, जैसा कि मनु ( ५।१०१-१०२ ) ने कहा है, यदि कोई ब्राह्मण स्नेहवश किसी असपिण्ड का शव ढोता है, मानो वह बन्धु हो, या जब वह मातृबन्धु ( यथा मामा या मौसी) का शव ढोता है तो वह तीन दिनों के उपरान्त शुद्ध हो जाता है; किन्तु यदि वह उनके घर भोजन करता है जिनके यहाँ कोई मर गया है, तो वह दस दिनों में पवित्र होता है; किन्तु यदि वह उनके घर में न रहता है और न वहाँ भोजन करता है तो वह एक दिन में
शुद्ध हो जाता है ( किन्तु भोजन न करने पर भी घर रह जाने से उसे तीन दिनों का आशौच करना पड़ता है ) । देखिए कूर्मपुराण (उत्तरार्ध २३ । ३७ ) एवं विष्णु० (२२।७९ ) । गौतम ० ( १४ । २१ - २५ ) ने भी इस विषय में नियम दिये हैं, किन्तु वे भिन्न हैं, अर्थात् सपिण्डों द्वारा मनाये जानेवाले आशौच से वे भिन्न हैं, यथा -- वह अस्पृश्य तो हो जाता है, किन्तु अन्य नियमों का पालन नहीं करता, यथा पृथिवी पर सोना आदि । यदि कोई लोभवश शव ढोता है तो इस विषय में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के लिए १०, १२, १५ या ३० दिनों का आशौच करना पड़ता है । निराशौच कहा जाता है; निर्हार शब्द के अन्तर्गत वस्त्र से शव को ढकना, मालाओं, गन्धों एवं भूषणों से शव को सजाना उसे ढोकर ले जाना एवं जलाना सम्मिलित हैं । जो सपिण्ड लोग किसी व्यक्ति की मृत्यु का आशौच
१७. प्रतिलोमानां त्वाशीचाभाव एव, प्रतिलोमा धर्महीनाः - इति मनुस्मरणात् । केवलं मृतौ प्रसवे च मलापकर्षणार्थं मूत्रपुरीषोत्सर्गवत् शौचं भवत्येव । मिता० ( याज्ञ० ३।२२ ) । प्रतिलोमास्तु धर्महीनाः ( गौतम ० ४।२० ) । संकरजातीनां शूद्रेण्वन्तर्भावात्तेषां शुक्रवदाशौचम् । स्मृतिमु० ( आशौच, पृ० ४९५ ) ।
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