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पितरों और देवों का अन्तर
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ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। शतपथब्राह्मण (२|१|३|४ एवं २।१।४१९ ) ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है ।
यद्यपि देव एवं पितर पृथक् कोटियों में रखे गये हैं, तथापि पितर लोग देवों की कुछ विशेषताओं को अपने में रखते हैं । ऋ० (१०।१५।८) ने कहा है कि पितर सोम पीते हैं। ऋ० (१०/६८।११) में ऐसा कहा गया है कि पितरों ने आकाश को नक्षत्रों से सुशोभित किया ( नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन् ) और अंधकार रात्रि में एवं प्रकाश दिन में रखा । पितरों को गुप्त प्रकाश प्राप्त करने वाले कहा गया है और उन्हें 'उषा' को उत्पन्न करने वाले द्योतित किया गया है (ऋ० ७७६।३) । यहाँ पितरों को उच्चतम देवों की शक्तियों से समन्वित माना गया है। भाँति-भाँति के वरदानों की प्राप्ति के लिए पितरों को श्रद्धापूर्वक बुलाया गया है और उनका अनुग्रह कई प्रकार से प्राप्य कहा गया है। ऋ० (१०/१४/६ ) में पितरों से सुमति एवं सौमनस (अनुग्रह ) प्राप्त करने की बात कही गयी है। उनसे कष्टरहित आनन्द देने ( ऋ० १०।१५।४) एवं यजमान ( यज्ञकर्ता) को एवं उसके पुत्र को सम्पत्ति देने के लिए प्रार्थना की गयी है (ऋ० १०।१५।७ एवं ११ ) । ऋ० (१०।१५।११ ) एवं अथर्व ० ( १८ | ३ | १४ ) ने सम्पत्ति एवं शूर पुत्र देने को कहा है। अथर्व ० (१४|२|७३) ने कहा है- ' वे पितर जो वधू को देखने के लिए एकत्र होते हैं उसे सन्ततियुक्त आनन्द दें । ' वाजसनेयी संहिता (२१३३ ) में प्रसिद्ध मन्त्र यह है - "हे पितरो, ( इस पत्नी के ) गर्भ में ( आगे चलकर ) कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार (पूर्ण विकसित) हो जाय”, जो उस समय कहा जाता है जब कि श्राद्धकर्ता की पत्नी तीन पिण्डों में बीच का पिण्ड खा लेती है।" इन शब्दों से यह नहीं समझना चाहिए कि पितरों के प्रति लोगों में भय-तत्त्व का सर्वथा अभाव था ।" उदाहरणार्थ ऋ० (१०।१५।६ ) में आया है - " ( त्रुटि करनेवाले) मनुष्य होने के नाते यदि हम आप के प्रति कोई अपराध करें तो हमें उसके लिए दण्डित न करें।" ऋ० (३।५५/२ ) में हम पढ़ते हैं-"वे देव एवं प्राचीन पितर, जो इस स्थल (गौओं या मार्ग) को जानते हैं, हमें यहाँ हानि न पहुँचायें।" ऋ० (१०।६६।१४) में ऐसा आया है - " वसिष्ठों ने देवों की स्तुति करते हुए पितरों एवं ऋषियों के सदृश वाणी ( मन्त्र ) परिमार्जित की या गढ़ी।" यहाँ 'पितृ' एवं 'ऋषि' दो पृथक् कोटियाँ हैं और वसिष्ठों की तुलना दोनों से की गयी है । "
१०. आधत्त पितरो गर्भं कुमारं पुष्करस्रजम् । यथेह पुरुषोऽसत् ॥ वाज० सं० (२०३३) । खादिरगृह्य ० ( ३।५।३०) ने व्यवस्था दी है--' मध्यमं पिण्डं पुत्रकामा प्राशयेदाधत्तेति'; और देखिए गोभिलगृह्य (४।३।२७) एवं कौशिकसूत्र ( ८९ । ६ ) । आश्व० श्री० (२।७।१३) में आया है - 'पत्नीं प्राशयेदाधत्त पितरो त्रजम् ।' अश्विनी को पुष्कराज कहा गया है, अतः 'पुष्करस्रज' शब्द में भावना यह है कि पुत्र लम्बी आयु वाला एवं सुन्दर हो । 'यथेह ... असत्' को इस प्रकार व्याख्यायित किया गया है--' येन प्रकारेण इहैव क्षितौ पुरुषो देवपितृमनुष्याणामभीष्टपूरयिता भूयात् तथा गर्भमाधत्त ।' देखिए हलायुध का ब्राह्मणसर्वस्व । कात्यायनश्र० (४।१।२२ ) ने भी कहा है- 'आधत्तेति मध्यमपिण्डं पत्नी प्राश्नाति पुत्रकामा ।'
११. मिलाइए बुलियामीकृत 'इम्मॉर्टल मैन ' (१० २४-२५), जहाँ आदिम अवस्था एवं सुसंस्कृत काल के लोगों के मृतक सम्बन्धी भय-स्नेह के भावों के विषय में प्रकाश डाला गया है।
१२. देवाः सौम्याश्च काव्याश्च अयज्वानो योनिजाः । देवास्ते पितरः सर्वे देवास्तान्वादयन्त्युत ॥ मनुष्यपितरश्चैव तेभ्योऽन्ये लौकिकाः स्मृताः । पिता पितामहश्चैव तथा यः प्रपितामहः ॥ ब्रह्माण्डपुराण (२।२८१७०-७१ ) ; अंगिराश्च ऋतुश्चैष कश्यपश्च महानृषिः । एते कुरुकुलश्रेष्ठ महायोगेश्वराः स्मृताः ॥ एते च पितरो राजन्नेव श्राद्ध विधिः परः । प्रेतास्तु पिण्डसम्बन्धान्मुच्यन्ते तेन कर्मणा ॥ अनुशासनपर्व ( ९२।२१-२२ ) । इस उद्धरण से प्रकट होता है कि अंगिरा ऋतु एवं कश्यप पितर हैं, जिन्हें जल दिया जाता है (पिण्ड नहीं), किन्तु अपने समीपवर्ती मृत पूर्वजों को पिण्ड दिये जाते हैं।
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