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धर्मशास्त्र का इतिहास
तप ( संयमित जीवन-यापन), वेदाध्ययन एवं (ब्राह्मण माता-पिता द्वारा) जन्म ऐसे कारण हैं जिनसे व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है, जो व्यक्ति इनमें दो से हीन है, वह केवल जाति से ब्राह्मण है ( वास्तविक ब्राह्मण नहीं है) । यह विचित्रबाम ने कही है कि जो ब्राह्मण नक्षत्र, तिथि, दिन, मुहूर्त एवं अन्य बातों की गणना नहीं कर सकता ( अर्थात् ज्योतिष व्यवसायी नहीं है) वह यदि श्राद्ध भोजन करता है तो श्राद्ध अक्षय हो जाता है।
कुछ योग्यताएँ इतनी कड़ी थीं कि उनसे युक्त ब्राह्मण की प्राप्ति असम्भव -सी थी । गौतम ० ( १५1१५१८) में ५० से ऊपर ऐसे ब्राह्मणों की सूचियाँ मिलती हैं, जो श्राद्ध या देवकृत्य में आमंत्रित होने के अयोग्य ठहराये गये हैं, किन्तु गौतम ० ( १५।१८) ने जोड़ा है कि कुछ लोगों के मत से इस वाक्य के अन्तर्गत केवल 'दुबल' शब्द से आरम्भ होनेवाले लोग ही श्राद्ध में आमंत्रण के अयोग्य हैं ( किन्तु वे देव-यज्ञों में आमन्त्रित हो सकते हैं) । गौतम ( ई० पू० ६०० ) के पूर्व के कुछ लोगों के मत से निम्न व्यक्ति त्याज्य माने गये हैं- ' दुबल ( खल्वाट), कुनखी (टेढ़े नखों वाला), श्यावदन्त ( काले दाँत वाला), श्वेत कुष्ठी ( चरक-प्रस्त), पौनर्भव ( पुनविवाहित विधवा का पुत्र), जुआरी, जपत्यागी, राजा का भृत्य (नौकर), प्रातिरूपिक ( गलत बाट-बटखरा रखनेवाला), शूद्रापति, निराकृती ( जो पंच आह्निक यज्ञ नहीं करता), किलासी ( भयंकर चर्मरोगी), कुसीदी ( सूदखोर), वणिक्, शिल्पोपजीवी, धनुष-बाण बनाने की वृत्ति करने वाले, वाद्ययन्त्र बजाने वाले, ठेका देनेवाले, गायक एवं नृत्यकार । वसिष्ठ ० (११।२० ) ने एक श्लोक इस प्रकार उद्धृत किया है- यदि कोई मन्त्रविद् अर्थात् वेदज्ञ ब्राह्मण शरीर दोषयुक्त है ( जिसके कारण सामान्यतः भोज में सम्मिलित नहीं किया जाता ) तो वह यम के मत से निर्दोष और पंक्ति-पावन है। यह ज्ञातव्य है कि आजकल भी बहुधा विद्वान् एवं साधुचरित ब्राह्मण ही श्राद्ध में आमन्त्रित किये जाते हैं। मनु ( ३।१८९ ) एवं पद्मपुराण के विचार आज भी सम्मान्य हैं, जैसा कि उन्होंने कहा है कि पितर लोग आमन्त्रित ब्राह्मणों में प्रविष्ट हो जाते हैं और उनके चतुर्दिक् विचरण किया करते हैं, अतः उन्हें पितरों के प्रतिनिधि के रूप में मानना चाहिए। गरुड़० ( प्रेतखण्ड, १०।२८-२९ ) ने कहा है कि यमराज मृतात्माओं एवं पितरों को श्राद्ध के समय यमलोक से मृत्युलोक में आने की अनुमति देते हैं । **
विष्णुधर्मसूत्र (७९ १९-२१) में आया है कि कर्ता को क्रोध नहीं करना चाहिए, न उसे अ सू गिराना चाहिए और न शीघ्रता से ही कार्य करना चाहिए। वराह० *" ने व्यवस्था दी है कि कर्ता को दाँत स्वच्छ करने के लिए
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४२. कुण्डाशि - सोमविक्रय्यगारदाहि-गरवावकीण-गणप्रेष्यागम्यागामि-हिल- परिवित्ति-परिवेत्तृ-पर्याहित-पर्याघातृ-स्यक्तात्म- दुर्बाल -कुनख श्यावदन्त श्वित्रि - पौनर्भव- कितवाजप- राजप्रेष्य प्रातिरूपिक-शूद्रापति-निराकृति- किलासिकुसीदि-बणिक्- शिल्पोपजीवि-ज्यावादित्रतालनृत्य-गीतशीलान् । दुर्बालादीन् श्राद्ध एवंके। अकृतान्नश्राद्धे चंबम् । गौतम० ( १५११८, ३१-३२) । यहाँ ऐसे शब्द, जो सन्धियुक्त हैं विच्छेदकों (हाइफन ) से पृथक नहीं किये गये हैं। ४३. अथाप्युदाहरन्ति । अथ चेन्मन्त्रविद्युक्तः शारीरैः पंक्तिदूषणैः । अनुष्यं तं यमः प्राह पंक्तिपावन एव सः ॥ वसिष्ठधर्मसूत्र (११।२०; मेधातिथि, मनु ३।१६८ ) । यह श्लोक अत्रि ( ३५०-५१ ) एवं लघुशंख (२२) में पाया जाता है।
४४. निमन्त्रितांश्च पितर उपतिष्ठन्ति तान् द्विजान् । वायुभूता निगच्छन्ति तथासीनानुपासते । पद्मपुराण ( सृष्टिखण्ड, ९।८५-८६ ) । श्राद्धकाले यमः प्रेतान् पितॄंश्चापि यमालयात् । विसर्जयति मानुष्ये निरयस्थांश्च काश्यप ॥ गरुडपुराण ( प्रेतखण्ड, १०।२८-२९ ) ।
४५. वराहपुराणे । दन्तकाष्ठं च विसृजेद् ब्रह्मचारी शुचिर्भवेत् । कल्पतरु ( श्रा०, पृ० १०४) एवं भा० प्र० (१० ११२ ) ।
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