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धर्मशास्त्र का इतिहास मासिक श्राद्ध को अन्वाहाय कहते हैं और यह निम्नलिखित अनुमोदित प्रकारों के साथ बड़ी सावधानी से अवश्य सम्पादित करना चाहिए।' इससे प्रकट होता है कि आहिताग्नि को श्रौताग्नि में पिण्डपितृयज्ञ करना होता था और उसी दिन उसके उपरान्त एक अन्य श्राद्ध करना पड़ता था। जो लोग श्रौताग्नि नहीं रखते थे उन्हें अमावास्या के दिन गृह्याः ग्नियों में पिण्डान्वाहार्यक (या केवल अन्वाहार्य) नामक श्राद्ध करना होता था और उन्हें स्मार्त अग्नि में पिण्डपितृयज्ञ भी करना पड़ता था। आजकल, जैसा कि खोज से पता लगा है, अधिकांश में अग्निहोत्री पिण्डपितृयज्ञ नहीं करते, या करते भी हैं तो वर्ष में केवल एक बार और पिण्डान्वाहार्यक श्राद्ध तो कोई नहीं करता। यह भी ज्ञातव्य है कि स्मार्त यज्ञों में अब कोई पशु-बलि नहीं होती, प्रत्युत उसके स्थान पर माष (उर्द) का अर्पण होता है, अब कुछ आहिताग्नि भी ऐसे हैं जो श्रौताग्नियों में मांस नहीं अर्पित करते, प्रत्युत उसके स्थान पर पिष्ट-पशु (आटे से बनी पशुप्रतिमा) की आहुतियाँ देते हैं।
श्राद्ध-सम्बन्धी साहित्य विशाल है। वैदिक संहिताओं से लेकर आधुनिक टीकाओं एवं निबन्धों तक में श्राद्ध के विषय में विशद वर्णन प्राप्त होता है। पुराणों में श्राद्ध के विषय में सहस्रों श्लोक हैं। यदि हम सारी बातों का विवेचन उपस्थित करें तो वह स्वयं एक पोथी बन जाय। हम कालानुसार श्राद्ध-सम्बन्धी बातों पर प्रकाश डालेंगे। वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों, गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों से लेकर आरम्भिक स्मृतिग्रन्थों, यथा मनु एवं याज्ञवल्क्य की स्मृतियों तक, तदनन्तर प्रतिनिधि पुराण एवं मेधातिथि, विज्ञानेश्वर तथा अपरार्क की टीकाओं द्वारा उपस्थति विवेचनों से लेकर मध्यकालिक निबन्धों तक का वर्णन उपस्थित करेंगे। ऐसा करते हुए भी हम केवल ढाँचा मात्र प्रस्तुत करेंगे। मतमतान्तरों को, जो कालान्तर में देशों, कालों, शाखाओं, देशाचारों, लेखकों की परम्पराओं एवं उनकी वैयक्तिक मनोवृत्तियों तथा समर्थताओं आदि के फलस्वरूप उत्पन्न होते गये, हम छोड़ते जायेंगे। पौराणिक काल में कतिपय शाखाओं की ओर संकेत मिलते हैं। स्मृतियों एवं महाभारत (यथा-अनुशासनपर्व, अध्याय ८७-९२) के वचनों तथा सूत्रों, मनु, याज्ञवल्क्य एवं अन्य स्मृतियों की टीकाओं के अतिरिक्त श्राद्ध-सम्बन्धी निबन्धों की संख्या अपार है। इस विषय में केवल निम्नलिखित निबन्धों की (काल के अनुसार व्यवस्थित) चर्चा होगी-श्राद्धकल्पतरु, अनिरुद्ध की हारलता एवं पितृदयिता, स्मृत्यर्थसार, स्मृतिचन्द्रिका, चतुर्वर्गचिन्तामणि (श्राद्ध प्रकरण), हेमाद्रि (बिब्लिओथिका इण्डिका माला, १७१६ पृष्ठों में), रुद्रधर का श्राद्धविवेक, मदनपारिजात, श्राद्धसार (नृसिंहप्रसाद का एक भाग), गोविन्दानन्द की श्राद्धक्रियाकौमुदी, रघुनन्दन का श्राद्धतत्त्व, श्राद्धसौख्य (टोडरानन्द का एक भाग), विनायक उर्फ नन्द पण्डित की श्राद्धकल्पलता, निर्णयसिन्धु, नीलकण्ठ का श्राद्धमयूख, श्राद्धप्रकाश (वीरमित्रोदय का एक भाग), दिवाकर भट्ट की श्राद्धचन्द्रिका, स्मृतिमुक्ताफल (श्राद्ध पर), धर्मसिन्धु एवं मिताक्षरा की टीका-बालमट्टी। श्राद्धसम्बन्धी विशद वर्णन उपस्थित करते समय, कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार सामान्य विचार भी उपस्थित किये जायेंगे। हम देखेंगे कि किस प्रकार साधारण बातों से, यथा-देवों को भोजन-अर्पण श्राद्ध के पूर्व करना चाहिए या उपरान्त, परिवित्ति की परिभाषा, वृषलीपति आदि से, श्राद्ध-सम्बन्धी ग्रन्थों का आकार कितना बढ़ गया है।
सर्वप्रथम हम श्रादाधिकारियों अर्थात् श्राद्ध करने के योग्य या अधिकारियों के विषय में विवेचन करेंगे। इस विषय में इस ग्रन्थ के खण्ड ३, अध्याय २९ एवं इस खण्ड के अध्याय ८ में भी प्रकाश डाल दिया गया है। यह ज्ञातव्य है कि कुछ धर्मशास्त्र-ग्रन्थों (यथा-विष्णुधर्मसूत्र)ने व्यवस्था दी है कि जो कोई मृतक की सम्पत्ति लेता है उसे
२३. स्कन्दपुराण (नागरखण्ड, २१५।२४-२५) में आया है-वृश्यन्ते बहवो भवा विजानां श्राद्धकर्मणि । भावस्य बहवो भेवाः शाखाभेदैव्यवस्थिताः।
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