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धर्मशास्त्र का इतिहास
कारी की अमिकांक्षा मी उत्पन्न कर देता है ( अर्थात् यह 'विविदिषा जनक' है, जैसा कि गीता ९।२७ में संकेत किया गया है ) । जैमिनि ० ( ६।३।१-७) ने सिद्ध किया है कि नित्य कर्म (यथा अग्निहोत्र, दर्श- पूर्णमास याग) अवश्य करने चाहिए, भले ही कर्ता उनके कुछ उपकृत्यों को सम्पादित करने में असमर्थ हो; उन्होंने ( ६।३।८-१० ) पुनः व्यवस्था दी है कि काय कृत्यों के सभी भाग सम्पादित होने चाहिए और यदि कर्ता सोचता है कि वह सबका सम्पादन करने में असमर्थ है तो उसे काम्य कृत्य करने ही नहीं चाहिए ।
विष्णुघ० सू० (७८।१-७) का कथन है कि रविवार को श्राद्ध करनेवाला रोगों से सदा के लिए छुटकारा पा जाता है और वे जो सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि को श्राद्ध करते हैं, क्रम से सौख्य ( या प्रशंसा ), युद्ध में विजय, सभी इच्छाओं की पूर्ति, अभीष्ट ज्ञान, धन एवं लम्बी आयु प्राप्त करते हैं । कूर्म० (२२०, १६-१७) ने भी सप्ताह के कतिपय दिनों में सम्पादित श्राद्धों से उत्पन्न फल का उल्लेख किया है।
विष्णुध० सू० (७८/८-१५) ने कृत्तिका से भरणी ( अभिजित् को भी सम्मिलित करते हुए) तक के २८ नक्षत्रों में सम्पादित श्राद्धों से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है। और देखिए याज्ञ० (१।२६५-२६८), वायु० (८२), मार्कण्डेय ० (३०।८-१६), कूर्म० (२२०/९-१५), ब्रह्म० (२२०।३३-४२) एवं ब्रह्माण्ड ० ( उपोद्घातपाद १८/१ ) । किन्तु इनमें मतैक्य नहीं पाया जाता, जिसका उल्लेख यहाँ नहीं किया जा रहा है।
अग्नि० (११७।६१) में आया है कि वे श्राद्ध जो किसी तीर्थ या युगादि एवं मन्वादि दिनों में किये जाते हैं ( पितरों को ) अक्षय संतुष्टि देते हैं। विष्णुपुराण (३ । १४११२-१३), मत्स्य ० ( १७।४-५ ), पद्म० (५/९/१३० १३१), वराह० (१३।४०-४१), प्रजापतिस्मृति (२२) एवं स्कन्द ० (७।२।२०५१३३-३४) का कथन है कि वैशाख शुक्ल तृतीया, कार्तिक शुक्ल नवमी, भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी एवं माघ की अमावास्या युगादि तिथियाँ ( अर्थात् चारों युगों के प्रथम दिन) कही जाती हैं । मत्स्य ० ( १७१६-८), अग्नि० ( ११७।१६२ - १६४ एवं २०९।१६ १८ ), सौरपुराण (५१।३३३६), पद्म० ( सृष्टि ० ९।१३२-१३६) ने १४ मनुओं ( या मन्वन्तरों) की प्रथम तिथियाँ इस प्रकार दी हैं--आश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक शुक्ल द्वादशी, चैत्र एवं भाद्रपद शुक्ल तृतीया, फाल्गुन की अमावास्या, पौष शुक्ल एकादशी, आषाढ़ शुक्ल दशमी एवं माघ शुक्ल सप्तमी, श्रावण कृष्ण अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र एवं ज्येष्ठ की पूर्णिमा | मत्स्यपुराण की सूची स्मृतिच० ( १, पृष्ठ ५८), कृत्यरत्नाकर ( पृ० ५४३), परा० भा० ( १ १ पृ० १५६ एवं १२ पृ० ३११ ) एवं मदनपारिजात ( पृ० ५४० ) में उद्धृत है । स्कन्द० (७।१।२०५-३६-३९) एवं स्मृत्यर्थसार ( पृ० ९) में क्रम कुछ भिन्न है । स्कन्दपुराण (नागर खण्ड) में श्वेत से लेकर तीस कल्पों की प्रथम तिथियाँ श्राद्ध के लिए उपयुक्त ठहरायी गयी हैं, जिन्हें हम यहाँ नहीं दे रहे हैं ।
आप० घ० सू० (७।१७।२३-२५), मनु ( ३।२८०), विष्णु घ० सू० (७७।८-९), कूर्म० ( २।१६।३-४), ब्रह्माण्ड ० ( ३।१४।३), भविष्य ० ( १।१८५।१) ने रात्रि, सन्ध्या (गोधूलि - काल), या जब सूर्य का तुरत उदय हुआ हो तब - ऐसे कालों में श्राद्ध-सम्पादन मना किया है, किन्तु चन्द्रग्रहण के समय छूट दी है। आप० ने इतना जोड़ दिया है कि यदि श्राद्ध सम्पादन अपराह्न में आरम्भ हुआ हो और किसी कारण से देर हो जाय तथा सूर्य डूब जाय तो कर्ता को श्राद्ध सम्पादन के शेष कृत्य दूसरे दिन करने चाहिए और उसे दर्मों पर पिण्ड रखने तक उपवास करना चाहिए । विष्णु घ० सू० का कथन है ग्रहण के समय किया गया श्राद्ध पितरों को तब तक सन्तुष्ट करता है जब तक चन्द्र एवं तारों का अस्तित्व है और कर्ता की सभी सुविधाओं एवं सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है । यही कूर्म० का कथन है कि जो व्यक्ति ग्रहण के समय श्राद्ध नहीं करता वह पंक में पड़ी हुई गाय के समान डूब जाता है ( अर्थात् उसे पाप लगता है या उसका नाश हो जाता है)। मिताक्षरा (याज्ञ० १।२१७) ने सावधानी के साथ निर्देशित किया है कि यद्यपि ग्रहणों के समय भोजन करना निषिद्ध है, तथापि यह निषिद्धता केवल भोजन करने वाले ( उन ब्राह्मणों को जो
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