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धर्मशास्त्र का इतिहास एवं वसिष्ठ (११३१६) का कथन है कि श्राद्ध प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्थी को छोड़कर किसी भी दिन किया जा सकता है और गौतम (१५।५) ने पुनः कहा है कि यदि विशिष्ट रूप में उचित सामग्रियाँ या पवित्र ब्राह्मण उपलब्ध हों या कर्ता किसी पवित्र स्थान (यथा-गया) में हो तो श्राद्ध किसी भी दिन किया जा सकता है। यही बात कूर्म० (२।२०।२३) ने भी कही है। अग्नि० (११५।८) का कथन है कि गया में किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है (न कालादि गयातीर्थे दद्यात् पिण्डांश्च नित्यशः)। मनु (३।२७६-२७८) ने व्यवस्था दी है कि मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को छोड़कर दशमी से आरंभ करके किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है, किन्तु यदि कोई चान्द्र सम तिथि (दशमी एवं द्वादशी) और सम नक्षत्रों (मरणी, रोहिणी आदि) में श्राद्ध करे तो उसकी इच्छाओं की पूर्ति होती है, किन्तु जब कोई विषम तिथि (एकादशी, त्रयोदशी आदि) में पितृपूजा करता है और विषम नक्षत्रों (कृत्तिका, मृगशिरा आदि) में ऐसा करता है तो भाग्यशाली संतति प्राप्त करता है। जिस प्रकार मास का कृष्ण पक्ष शुक्ल पक्ष की अपेक्षा अच्छा समझा जाता है उसी प्रकार अपराह्न को मध्याह्न से अच्छा माना जाता है। अनुशासनपर्व (८७।१८) ने भी ऐसा ही कहा है। याज्ञ० (११२१७-२१८), कूर्म० (२।२०।२-८), मार्कण्डेय० (२८।२०) एवं वराह० (१३।३३-३५) ने एक स्थान पर श्राद्ध सम्पादन के कालों को निम्न रूप से रखा है-अमावास्या, अष्टका दिन, शुभ दिन (यथा-- पुत्रोत्पत्ति दिवस), मास का कृष्ण पक्ष, दोनों अयन (वे दोनों दिन जब सूर्य उत्तर या दक्षिण की ओर जाना आरम्भ करता है), पर्याप्त सम्भारों (भात, दाल या मांस आदि सामग्रियों) की उपलब्धि, किसी योग्य ब्राह्मण का आगमन, विषुवत रेखा पर सूर्य का आगमन, एक राशि से दूसरी राशि में जानेवाले सूर्य के दिन, व्यतीपात, गजच्छाया नामक ज्योतिषसंधियाँ, चन्द्र और सूर्य-ग्रहण तथा जब कर्मकर्ता के मन में तीव्र इच्छा का उदय (श्राद्ध करने के लिए) हो गया हो-यही काल श्राद्ध-सम्पादन के हैं। मार्कण्डेय (२८।२२।२३) ने जोड़ा है कि तब श्राद्ध करना चाहिए
२७. अपरार्क (१० ४२६) ने 'व्यतीपात' की परिभाषा के लिए वृद्ध मन को उद्धृत किया है--'श्रवणाश्विधनिष्ठानागदेवतमस्तके। यद्यमा रविवारेण व्यतीपातः स उच्यते॥' और देखिए अग्निपु० (२०९।१३) । जब अमावस्या रविवार को होती है और चन्द्र उस दिन श्रवण नक्षत्र में या अश्विनी, धनिष्ठा, आर्द्रा में या आश्लेषा के प्रथम चरण में होता है तो उस यो को व्यतीपात कहते हैं। कुछ लोग 'मस्तक' को 'मृगशिरोनक्षत्र' कहते हैं। बाण ने अपने हर्षचरित में 'व्यतीपात' का उल्लेख किया है। राशियों की ओर निर्देश करके भी व्यतीपात की परिभाषा की गयी है--'पञ्चाननस्थौ गुरुभूमिपुत्रौ मेषे रविः स्याद्यदि शुक्लपक्षे । पाशाभिधाना करभेन युक्ता तिथियंतीपात इतोह योगः॥' (श्रा० क० त०, पृ० १८-१९)। जब शुक्लपक्ष की द्वादशी को चन्द्र हस्त नक्षत्र में होता है, सूर्य मेष में, बृहस्पति एवं मंगल सिंह में होते हैं तो उस योग को व्यतीपात कहते हैं। गजच्छाया वह योग है जब चन्द्र मघा नक्षत्र में एवं सूर्य हस्त में होता है और तिथि वर्षा ऋतु को त्रयोदशी होती है। विश्वरूप (याज्ञ० २।२१८) ने उद्धृत किया है--'यदि स्याच्चन्द्रमाः पिश्ये करे चैव दिवाकरः। वर्षासु च त्रयोदश्यां सा चछाया कुजरस्य तु॥' अपरार्क ने काठकश्रुति को उद्धृत किया है--'एतद्धि देवपितृणां चायनं यद्धस्तिच्छाया'। मिताक्षरा और अपरार्क (१०४२७) बोनों में यही वचन है। कल्पतरु (श्राव, पृ० ९) एवं कृत्यरत्नाकर (पृ० ३१९) ने ब्रह्मपुराण को उद्धृत किया है'योगो मघात्रयोदश्यां कुञ्जरच्छायसंजितः। भवेन्मधायां संस्थे च शशिन्य करे स्थिते ॥' सौरपुराण ने इसे इस प्रकार व्याख्यापित किया है--'श्राद्धपक्षे त्रयोदश्यां मघास्विन्दुः करे रविः।' स्कन्दपुराण (६।२२०४२-४४) ने 'हस्तिच्छाया' की व्याख्या कई प्रकार से की है। अग्निपुराण (१६५।३-४) ने 'हस्तिच्छाया' को दो प्रकार से समझाया है। कुछ लोग गजग्छाया का शाब्दिक अर्थ लेते हैं और कहते हैं कि किसी हाथी की छाया में श्राव-सम्पादन होना चाहिए। वनपर्व
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