________________
अष्टका का काल एवं स्वरूप
१२०९
यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि उपर्युक्त उद्धृत वार्तिक एवं काठकगृ० (६१११) का कथन है कि 'अष्टका' शब्द उस कृत्य के लिए प्रयुक्त होता है जिसमें पितर लोग देवताओं (अधिष्ठाताओं) के रूप में पूजित होते हैं, किन्तु अष्टका के देवता के विषय में मत-मतान्तर हैं। आश्व० गृ० (२।४।३ एवं २।५।३-५) में आया है कि मास के कृष्णपक्ष की सप्तमी को तथा नवमी को पितरों के लिए हवि दी जाती है, किन्तु आश्व० गृ० (२।४।१२) ने अष्टमी के देवता के विषय में आठ विकल्प दिये हैं, यथा-विश्वे-देव (सभी देव), अग्नि, सूर्य, प्रजापति, रात्रि, नक्षत्र, ऋतुएँ, पितर एवं पशु। गोमिल गृ० (३।१०।१) ने यह कहकर आरम्भ किया है कि रात्रि अष्टका की देवता है, किन्तु इतना जोड़ दिया है कि देवता के विषय में अन्य मत भी हैं, यथा--अग्नि, पितर, प्रजापति, ऋतु या विश्वे-देव।
___अष्टका की विधि तीन भागों में है। होम, भोजन के लिए ब्राह्मणों को आमन्त्रित करना (भोजनोपरान्त उन्हें देखने तक) एवं अन्वष्टक्य या अन्वष्टका नामक कृत्य। यदि अष्टका कई मासों में सम्पादित होने वाली तीन या चार हों, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, तो ये सभी विधियाँ प्रत्येक अष्टका में की जाती हैं। जब अष्टका कृत्य केवल एक मास में, अर्थात् केवल माघ की पूर्णिमा के पश्चात् हो तो उपर्युक्त कृत्य कृष्णपक्ष की सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी को किये जाते हैं। यदि यह एक ही दिन सम्पादित हो तो तीनों विधियाँ उसी दिन एक के उपरान्त एक अवश्य की जानी चाहिए।
____ अष्टकाओं के विषय में आश्वलायन, कौशिक, गोभिल, हिरण्यकेशी एवं बौधायन के गृह्यसूत्रों में विशद विधि दी हुई है। आपस्तम्बगृ० (८।२१ एवं २२) में उसका संक्षिप्त रूप है जिसे हम उदाहरणार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। एकाष्टका की परिभाषा देने के उपरान्त आप० गृ०(८।२१।१०)ने लिखा है-“कर्ता को एक दिन पूर्व ('अमान्त' कृष्ण पक्ष की सप्तमी को) सायंकाल आरंभिक कृत्य करने चाहिए। वह चार प्यालों में (चावल की राशि में से) चावल लेकर उससे रोटी पकाता है, कुछ लोगों के मत से (पूरोडाश की मांति) आठ कपालों वाली रोटी बनायी जाती है। अमावस्या एवं पूर्णिमा के यज्ञों की भांति आज्यभाग नामक कृत्य तक सभी कृत्य करके वह दोनों हाथों से रोटी या अपूप की आहुतियाँ देता है और आप• मन्त्रपाठ का एक मन्त्र (२।२०।२७) पढ़ता है। अपूप का शेष भाग आठ भागों में विभाजित कर ब्राह्मणों को दिया जाता है। दूसरे दिन वह (कर्ता) 'मैं तुम्हें यज्ञ में बलि देने के लिए, जो पितरों को अच्छा लगता है, बनाता हूँ' कथन के साथ गाय को दर्म स्पर्श कराकर बलि के लिए तैयार करता है। मौन रूप से (बिना 'स्वाहा' कहे) घृत की पाँच आहुतियां देकर पशु की वपा (मांस) को पकाकर और उसे नीचे फैलाकर तथा उस पर धृत छोड़कर वह पलाश की पत्ती से (डंठल के मध्य या अन्त भाग से पकड़कर) उसकी आगे के मन्त्र (आप० मन्त्रपाठ, २।२०१२८) के साथ आहुति देता है। इसके उपरान्त वह भात के साथ मांस आगे के सात मन्त्रों (आप. मन्त्रपाठ, २।२०।२९-३५) के साथ आहुति रूप में देता है। इसके पश्चात् वह दूध में पके हुए आटे को आगे के मन्त्र (२२२१३१ 'उक्थ्यश्चातिरात्रश्च') के साथ आहुति रूप में देता है। तब आगे के मन्त्रों (२।२१।२-९) के साथ घृत की आहुतियां देता है। स्विष्टकृत् के कृत्यों से लेकर पिण्ड देने तक के कृत्य मासिक श्राद्ध के समान ही होते हैं (आप० गृ० ८।२१।१-९)। कुछ आचार्यों का मत है कि अष्टका से एक दिन उपरान्त (अर्थात् कृष्ण पक्ष की नवमी को) ही पिण्ड दिये जाते हैं। कर्ता अपूप के समान ही दोनों हाथों से दही की आहुति देता है। दूसरे दिन गाय के मांस का उतना अंश, जितने की आवश्यकता हो, छोड़कर अन्वष्टका कृत्य सम्पादित करता है।"
यद्यपि आप० गृ० (२।५।३) एवं शांखा० गृ० (३६१३१७) का कथन है कि अन्वष्टका कृत्य में पिण्डपितृयज्ञ की विधि मानी जाती है, किन्तु कुछ गृह्यसूत्र (यथा खादिर० ३।५ एवं गोभिल० ४।२-३) इस कृत्य का विशद वर्णन उपस्थित करते हैं। आश्व० गृ० एवं विष्णुधर्मसूत्र (७४) ने मध्यम मार्ग अपनाया है। आश्व० गृ० का वर्णन अपेक्षाकृत संक्षिप्त है और हम उसी को प्रस्तुत कर रहे हैं। यह ज्ञातव्य है कि कुछ गृह्यसूत्रों का कथन है कि अन्वष्टका
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only
Jain Education International