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धर्मशास्त्र का इतिहास
वैदिक साहित्य की बहुत सी उक्तियों में 'पितरः' शब्द व्यक्ति के समीपवर्ती, मृत पुरुष पूर्वजों के लिए प्रयुक्त हुआ है । 'अतः तीन पीढ़ियों तक वे (पूर्वजों को) नाम से विशिष्ट रूप से व्यंजित करते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत-से पितर हैं। जिन्हें आहुति दी जाती हैं' ( तै० ना० १/६/९/५) । शतपथब्राह्मण ( २|४|२| १९ ) ने पिता, पितामह एवं प्रपितामह को पुरोडाश (रोटी) देते समय के सूक्तों का उल्लेख किया है और कहा है कि कर्ता इन शब्दों को कहता है- "हे पितर लोग, यहाँ आकर आनन्द लो, बैलों के समान अपने-अपने भाग पर स्वयं आओ" (वाज० सं० २।३१, प्रथम पाद) । कुछ ( तै० सं० १/८/५/१) ने यह सूक्त दिया है-- "यह ( भात का पिण्ड ) तुम्हारे लिए और उनके लिए है जो तुम्हारे पीछे आते हैं ।” किन्तु शतपथब्राह्मण ने दृढतापूर्वक कहा है कि यह सूक्त नहीं कहना चाहिए, प्रत्युत यह विधि अपनानी चाहिए - " यहाँ यह तुम्हारे लिए है ।" शत० ब्रा० ( १२।८।१।७) में तीन पूर्व पुरुषों को स्वधाप्रेमी कहा गया है। इन वैदिक उक्तियों एवं मनु ( ३।२२१) तथा विष्णु० (२१।३ एवं ७५/४ ) की इस व्यवस्था पर कि नाम एवं गोत्र बोलकर ही पितरों का आह्वान करना चाहिए, निर्भर रहते हुए श्राद्धप्रकाश ( पृ० १३ ) ने निष्कर्ष निकाला है कि पिता एवं अन्य पूर्वजों को ही श्राद्ध का देवता कहा जाता है, न कि वसु, रुद्र एवं आदित्य को, क्योंकि इनके गोत्र नहीं होते और पिता आदि वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में केवल ध्यान के लिए वर्णित हैं। श्राद्धप्रकाश ( पृ० २०४) ब्रह्मपुराण के इस जो यह व्यवस्था देता है कि कर्ता को ब्राह्मणों से यह कहना चाहिए कि मैं कृत्यों के लिए पितरों को बुलाऊंगा और जब ब्राह्मण ऐसी अनुमति दे देते हैं तो उसे वैसा करना चाहिए ( अर्थात् पितरों का आह्वान करना चाहिए), यह निर्देश देता है कि यहाँ पितरों का तात्पर्य है देवों से, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों से तथा मानवों से, यथा-कर्ता के पिता तथा अन्यों से । वायु० (५६ ६५-६६ ), ब्रह्माण्ड० एवं अनुशासन पर्व ने उपर्युक्त पितरों एवं लौकिक पितरों (पिता, पितामह एवं प्रपितामह) में अन्तर दर्शाया है। देखिए वायु० (७०२३४), जहाँ पितर लोग देवता कहे गये हैं ।
कथन पर,
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वैदिक साहित्य के उपरान्त की रचना में, विशेषतः पुराणों में पितरों के मूल एवं प्रकारों के विषय में विशद वर्णन मिलता है । उदाहरणार्थ, वायुपुराण ( ५६ । १८ ) ने पितरों की तीन कोटियाँ बतायी हैं; काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त । पुनः वायु० (अध्याय ७३) ने तथा वराह० ( १३।१६), पद्म० ( सृष्टि ९।२-४ ) एवं ब्रह्माण्ड (३|१०| १) ने सात प्रकार के पितरों के मूल पर प्रकाश डाला है, जो स्वर्ग में रहते हैं, जिनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान् । शातातपस्मृति (६।५।६) ने १२ पितरों के नाम दिये हैं; पिण्डभाजः, लेपभाजः, नान्दीमुखाः एवं अश्रुमुखाः । स्थानाभाव से हम इन पर विवेचन नहीं करेंगे ।
सूत्रकाल (लगभग ई० पू० ६०० ) से लेकर मध्यकाल के धर्मशास्त्रकारों तक सभी लोगों ने श्राद्ध की महत्ता एवं उससे उत्पन्न कल्याण की प्रशंसा के पुल बाँध दिये हैं। आपस्तम्बधर्म० (२।७।१६।१-३) ने अधोलिखित सूचना दी है - " पुराने काल में मनुष्य एवं देव इसी लोक में रहते थे । देव लोग यज्ञों के कारण ( पुरस्कारस्वरूप) स्वर्ग चले गये । किन्तु मनुष्य रह गये । जो मनुष्य देवों के समान यज्ञ करते हैं वे परलोक (स्वर्ग) में देवों एवं ब्रह्मा के साथ निवास करते हैं। तब ( मनुष्यों को पीछे रहते देखकर) मनु ने उस कृत्य का आरम्भ किया जिसे श्राद्ध की संज्ञा मिली है जो मानव जाति को श्रेय ( मुक्ति या आनन्द ) की ओर ले जाता है । इस कृत्य में पितर लोग देवता ( अधिष्ठाता) हैं, किन्तु ब्राह्मण लोग (जिन्हें भोजन दिया जाता है) आहवनीय अग्नि (जिसमें यज्ञों के समय आहुतियाँ दी जाती हैं) के स्थान पर माने जाते हैं ।" इस अन्तिम सूत्र के कारण हरदत्त ( आप० घ० सू० के टीकाकार) एवं अन्य लोगों का कथन है कि श्राद्ध में ब्राह्मणों को खिलाना प्रमुख कृत्य है । ब्रह्माण्डपुराण ( उपोद्घातपाद ९।१५ एवं १० । ९९ ) ने मनु को श्राद्ध के कृत्यों का प्रवर्तक एवं विष्णुपुराण (३|१|३० ), वायु० (४४ | ३८ ) एवं भागवत ० ( ३।१।२२ ) ने श्राद्धदेव कहा है । इसी प्रकार शान्तिपर्व ( ३४५ । १४ - २१ ) एवं विष्णुधर्मोत्तर ० ( १।१३९।१४-१६) में आया है कि श्राद्ध-प्रथा का
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