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आशीष का अपवादः आशौच के मध्य में अन्य आशौच
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सकती हैं ( किन्तु उसके हाथ से नहीं; उसकी अनुमति से ) । कूर्मपुराण के मत से वे वस्तुएँ ये हैं-फल, पुष्प, कच्चे शाक, लवण, ईंधन, तक्र (मट्ठा), दही, घी, तेल, दवा, दूध एवं सूखा भोजन (लड्डू, लावा आदि) । मरीचि (मिता०, याश० ३।१७ ) एवं त्रिशच्छ्लोकी (२०) ने इन वस्तुओं की लम्बी सूची दी है।
कुछ स्मृतियों एवं टीकाकारों ने स्वामी की आशौचावस्था में दासों के आशौच के नियम भी दिये हैं। देखिए विष्णु० (२२/१९), देवलस्मृति ( ६ ), बृहस्पति ( हरदत्त, गौतम ० १४।४) । दास प्रथा बहुत पहले ही समाप्त कर दी गयी, अतः इसका विवेचन नहीं होगा।
अशौचसन्निपात या आशोचसम्पात (आशौच करते हुए व्यक्ति के यहाँ अन्य आशौच की जानकारी की पहुँच ) । इस विषय के नियम बहुत प्राचीन हैं और सुविधा एवं साधारण ज्ञान पर निर्भर रहते हैं; ये ऐसे नहीं हैं कि व्यक्ति को दोनों आशौचों को अलग-अलग करने की व्यवस्था दें। गौतम ० ( १४/५ ) का कथन है कि ऐसी स्थिति में प्रथम आचौच की समाप्ति पर ही दूसरे आशौच से शुद्धि प्राप्त हो जाती है। इसके आगे के दो सूत्रों का कथन है कि यदि दूसरा आशौच प्रथम आशौच की अन्तिम रात्रि में आ पड़ता है तो प्रथम की समाप्ति के दो दिनों के पश्चात् शुद्धि हो जाती है, किन्तु यदि दूसरे का समाचार प्रथम के अन्तिम दिन की रात्रि के अन्तिम प्रहर में पहुँचता है तो प्रथम की समाप्ति के तीन दिनों के पश्चात् शुद्धि प्राप्त हो जाती है। यही बात बौघा० घ० सू० ( १|५|१२३ ) में पायी जाती है । और देखिए गौतम (१४|५-६ ), मनु ( ५।७९), याज्ञ० (३१२०), विष्णु० (२२/३५-३८), शंख ( १५/१०), पराशर (३३२८), जहाँ गौतम (१४१५) के ही नियम लागू किये गये हैं ।
इस आशौच से सम्बन्धित कुछ सामान्य नियमों का वर्णन आवश्यक है। जनन एवं मरण के आशौचों में मरण के आशौच के नियम अपेक्षाकृत कठिन हैं। दूसरा नियम यह है—जब दो आशौच समान प्रकार के हों और दूसरा समान अवधि का या कम अवधि का हो तो व्यक्ति प्रथम की समाप्ति पर दूसरे से भी मुक्त हो जाता है, किन्तु यदि दूसरा समान आशौच अधिक अवधि का हो तो शुद्धि अधिक लम्बे आशौच के उपरान्त ही प्राप्त होती है। यह ज्ञातव्य है कि जनन एवं मरण से आशौच तभी उत्पन्न होता है जब कि वे व्यक्ति को ज्ञात हों ।
इस विषय में मिताक्षरा, गौड़ों एवं मैथिलों के सम्प्रदायों में मतैक्य नहीं है (देखिए शुद्धिप्रकाश, पृ० ७४-८२, निर्णयसिन्धु, पृ० ५३६- ५४० ) । जब अन्य आशौच आ पड़ता है तो निर्णयसिन्धु के अनुसार बारह विकल्प सम्भव दीखते हैं, जिन्हें हम यों लिखते हैं- " ( १ एवं २ ) यदि दोनों आशौच जनन के हैं और दूसरा पहले की अवधि के बराबर या कम है तो प्रथम की समाप्ति पर दूसरे से शुद्धि हो जाती है (विष्णु० २२/३५, शंख १५/७०); (३) यदि दोनों जनन से उत्पन्न हों और दूसरा अपेक्षाकृत लम्बी अवधि का हो तो दूसरे आशौच की समाप्ति पर शुद्धि प्राप्त होती है (शंख १५१० एवं षडशीति १९ ) ; ( ४ एवं ५ ) यदि दोनों मरण से जनित हों और दूसरा पहले के समान या कम अवधि का हो तो पहले की समाप्ति पर शुद्धता प्राप्त होती है; (६) यदि दोनों में प्रथम की अपेक्षा दूसरा लम्बी अवधि का हो तो दूसरे की समाप्ति पर शुद्धि हो जाती है (षडशीति २१); (७, ८ एवं ९) यदि पहला आशौच जनन से उत्पन्न हो और दूसरा मरण से, तो मरण वाला पूरी अवधि तक चलता है ( अर्थात् प्रथम की समाप्ति पर ही शुद्धि नहीं हो जाती ) चाहे मरण वाला कम अवधि का हो या समानावधि का हो या अधिकावधि का हो ( षडशीति १८ ); (१० एवं ११) यदि प्रथम मरणोत्पन्न हो और बीच में आ पड़नेवाला जनन प्राप्त हो और मरणोत्पन्न वाले से कम अवधि का हो तो दोनों का अन्त मरणोत्पन्न आशौच की परिसमाप्ति पर होता है (षडशीति २१ ); (१२) यदि प्रथम आशौच मरणजनित हो और दूसरा आ जानेवाला जनन-जनित एवं लम्बी अवधि का हो तो दोनों उचित अवधि तक चलते जाते हैं" ( षडशीति २१ ) ।
धर्मसिन्धु ( पृ० ४३६) सामान्यतः निर्णयसिन्धु का अनुसरण करता है, किन्तु उसका कथन है---"मरण
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