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धर्मशास्त्र का इतिहास मनाते हैं वे उसके घर में बना हुआ भोजन कर सकते हैं, किन्तु वे लोग ऐसा नहीं कर सकते जो उस आशौच को नहीं मना रहे हैं।
गौतम० (१४।२९), मनु (५।१०३), याज्ञ० (३।२६) एवं पराशर (३।४२) ने व्यवस्था दी है कि किसी ब्राह्मण को किसी अन्य ब्राह्मण की शवयात्रा में नहीं सम्मिलित होना चाहिए, नहीं तो उसे स्नान करना पड़ेगा, अग्नि छूनी पड़ेगी और घृत पीना पड़ेगा, तब कहीं अशुद्धि से मुक्ति मिलेगी। पराशर (३।४३।४६) एवं कूर्म० (उतरार्ध २३।४५) के मत से यदि वह क्षत्रिय की शवयात्रा में जाये तो एक दिन का आशौच एवं पंचगव्य पीना पड़ेगा। इसी प्रकार वैश्य एवं शूद्र की शवयात्राओं में सम्मलित होने से दो दिनों का आशौच एवं छः प्राणायाम तथा तीन दिनों का आशौच, समुद्रगामी नदी में स्नान, १०० प्राणायाम करना एवं घृत पीना पड़ेगा। देखिए त्रिशच्छ्लोकी (श्लोक १३)।
यदि ब्राह्मण किसी असपिण्ड के मरण में उसके घर जाय और उसके सम्बन्धियों के साथ रुदन करे तो उसे एक दिन का आशौच लगता है (किन्तु ऐसा अस्थिसंचयन के पूर्व जाने से होता है), यदि मृत क्षत्रिय या वैश्य हो तो स्नान भी करना पड़ता है, किन्तु यदि मृत शूद्र हो तो तीन दिनों का आशौच लगता है, किन्तु अस्थिसंचयन के उपरान्त जाने से केवल स्नान करना पड़ता है। किन्तु यदि मत शद्र हो तथा रुदन अस्थिसंचयन के पश्चात मनाया गया हो तो आशौच केवल एक दिन एवं रात का होता है। और देखिए कर्मपुराण (उत्तरार्ध, २३।४६-४७), अग्निपुराण (१५८।४७-४८), परा० मा० (११२, पृ० २८३-२८५), स्मृतिमुक्ताफल (आशौच, पृ० ५४३) एवं आशौचदशक (९)।
___ जनन-मरण से उत्पन्न आशौच वाले व्यक्ति इसी प्रकार के अन्य व्यक्ति को नहीं छू सकते। यदि वे ऐसा करते हैं तो उन्हें प्रायश्चित्त (प्राजापत्य या सान्तपन) करना पड़ता है।
यदि पत्नी पति को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति से अनैतिक शरीर-सम्बन्ध स्थापित कर ले और वह व्यक्ति पति की जाति या किसी उच्च जाति का हो तो स्त्री के मरने पर पति को एक दिन का आशौच होता है; किन्तु यदि उस पत्नी का सम्बन्ध किसी छोटी जाति के पुरुष के साथ हो गया हो तो उसके मरण पर आशौच नहीं करना पड़ता (याज्ञ० ३।६)। इसी प्रकार औरस को छोड़कर अन्य पुत्रों (क्षेत्रज आदि) की मृत्यु पर एक दिन का आशौच करना होता है। देखिए याज्ञ० (३।२५) एवं विष्णु० (२२१४२-४३)।
___ उपर्युक्त नियमों के कुछ अपवाद भी हैं, यथा आशौच-ग्रस्त व्यक्ति के घर का भोजन करने में; जब कि विवाहोत्सव में (चौल एवं उपनयन में भी), देवोत्सव एवं ज्योतिष्टोम जैसे यज्ञों में जनन एवं मरण से अशुद्धि आ जाय तो कर्ता द्वारा देवों एवं ब्राह्मणों को देने के लिए जो कुछ घन या पदार्थ अलग कर दिये गये हों उन्हें देवों एवं ब्राह्मणों को दे देने में कोई अपराध नहीं है। भोजन के विषय में मिता० (याज्ञ० ३।२७) ने एक स्मृति-वचन उद्धत किया है'यदि विवाहोत्सव, देवोत्सव या यज्ञ के समय जनन या मरण हो जाय तो बना हुआ भोजन आशौचहीन द्वारा दिया जाना चाहिए, और ऐसी स्थिति में दाता एवं भोजनकर्ता को कोई अपराध नहीं लगता।' अंगिरा, पैठीनसि (स्मृचि०, आशौच, पृ०६०) एवं विष्णु के मत से जब एक बार यज्ञ (सोमयज्ञ आदि), विवाह, पृथिवी माता या किसी देव का उत्सव, देवप्रतिष्ठा, मन्दिर-निर्माण आरम्म हो जाता है तो बीच में आशौच हो जाने पर भी उसका प्रभाव नहीं होता। आजकल भी विवाह एवं उपनयन में इसी नियम का अनुसरण होता है। यज्ञ, विवाह आदि कब आरम्भ हुआ माना जाता है, इस विषय में लघु-विष्णु का यों कहना है-यज्ञ पुरोहितों के वरण के उपरान्त आरम्भ हुआ माना जाता है, व्रत एवं जप में सामग्री संचय आरम्भ का द्योतक है, विवाह में नान्दीश्राद्ध तथा श्राद्ध में ब्राह्मणों के लिए भोजन बन जाना उनका आरम्भ हो गया मान लिया जाता है। आशौच में लगे हुए व्यक्ति के घर से जब कि वह गृहस्वामी होता है, कुछ वस्तुएँ ली जा
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