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मृत पितरों को श्राद्धीय वस्तुओं की प्राप्ति
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कर्म, पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त में अटल विश्वास रखनेवाले व्यक्ति इस सिद्धान्त के साथ कि पिण्डदान करने से तीन पूर्व-पुरुषों की आत्मा को सन्तुष्टि प्राप्त होती है, कठिनाई से समझौता कर सकते हैं । पुनर्जन्म ( देखिए बृहदारण्यकोपनिषद् ४।४१४ एवं भगवद्गीता २।२२ ) ' के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर में प्रविष्ट होती है। किन्तु तीन पूर्व पुरुषों के पिण्डदान का सिद्धान्त यह बतलाता है कि तीनों पूर्वजों की आत्माएँ ५० या १०० वर्षों के उपरान्त मी वायु में सन्तरण करते हुए चावल के पिण्डों की सुगन्धि या सारतत्त्व वायव्य शरीर द्वारा ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। इसके अतिरिक्त याज्ञ० (११२६९ = मार्कण्डेयपुराण २९।३८), मत्स्यपुराण ( १९।११-१२ ) एवं अग्निपुराण ( १६३।४१-४२ ) में आया है कि पितामह लोग ( पितर) श्राद्ध में दिये गये पिण्डों से स्वयं 'सन्तुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, सम्पत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सभी सुख एवं राज्य देते हैं । मत्स्यपुराण (१९।२) में ऋषियों द्वारा पूछा गया एक प्रश्न ऐसा आया है कि वह भोजन, जिसे ब्राह्मण (श्राद्ध में आमन्त्रित ) खाता है या जो अग्नि में डाला जाता है, क्या उन मृतात्माओं द्वारा खाया जाता है, जो (मृत्यूपरान्त) अच्छे या बुरे शरीर धारण कर चुके होंगे। वहीं ( श्लोक ३ - ९ ) यह उत्तर दिया गया है कि पिता, पितामह एवं प्रपितामह, वैदिक उक्तियों
के
'अनुसार, क्रम से वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों के समानरूप माने गये हैं; कि नाम एवं गोत्र ( श्राद्ध के समय वर्णित ), उच्चरित मन्त्र एवं श्रद्धा आहुतियों को पितरों के पास ले जाते हैं; कि यदि किसी के पिता ( अपने अच्छे कर्मों के कारण ) देवता हो गये हैं, तो श्राद्ध में दिया हुआ भोजन अमृत हो जाता है और वह उनके देवत्व की स्थिति में उनका अनुसरण करता है; यदि वे दैत्य (असुर) हो गये हैं तो वह (श्राद्ध में दिया गया भोजन) उनके पास भाँति-भाँति के आनन्दों के रूप में पहुँचता है; यदि वे पशु हो गये हैं तो वह उनके लिए घास हो जाता है और यदि वे सर्प हो गये हैं तो श्राद्ध-भोजन वायु बनकर उनकी सेवा करता है, आदि-आदि। श्राद्धकल्पतरु ( पृ० ५ ) ने मत्स्य ० ( १९१५ - ९ ) के श्लोक मार्कण्डेय पुराण के कहकर उद्धृत किये हैं । विश्वरूप ( याज्ञ० १ । २६५ ) ने भी उपर्युक्त विरोध उपस्थित करके स्वयं कई उत्तर दिये हैं। एक उत्तर यह है—यह बात पूर्णरूपेण शास्त्र पर आधारित है, अतः जब शास्त्र कहता है कि पितरों को संतुष्टि मिलती है और कर्ता को मनोवांछित फल प्राप्त होता है, तो कोई विरोध नहीं खड़ा करना चाहिए। एक दूसरा उत्तर यह है - 'वसु, रुद्र आदि ऐसे देवता हैं जो सभी स्थानों में अपनी पहुँच रखते हैं, अतः पितर लोग जहाँ भी हों वे उन्हें सन्तुष्ट करने की शक्ति रखते हैं । विश्वरूप ने प्रश्नकर्ताओं को नास्तिक नहीं कहा है, जैसा कि कुछ अन्य लोगों एवं पश्चात्कालीन लेखकों ने कहा है । '
नन्द- पण्डितकृत श्राद्धकल्प ता ( लगभग १६०० ई०) ने विरोधियों (जिन्हें वे नास्तिक कहते हैं) को विस्तृत प्रत्युत्तर दिया है। विरोधियों का कथन है कि पिता आदि के लिए, जो अपन विशिष्ट कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक को जाते हैं या अन्य प्रकार का जोवन धारण करते हैं, श्राद्ध-सम्पादन कोई अर्थ नहीं रखता । नन्द पण्डित ने पूछा है - " श्राद्ध क्यों अनुपयोगी है? क्या इसलिए कि इसके सम्पादन की अपरिहार्यता के लिए कोई व्यवस्थित विधान नहीं है ? या
२. अयमात्मेदं शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वान्यन्नवतरं कल्याणतरं रूपं कुरुते पित्र्यं वा गान्धवं वा देवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्मं वान्येषां वा भूतानाम् । बृह० उप० ( ४१४१४ ) ; तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ गीता ( २।२२) ।
३. कथं हि स्वकर्मानुसारावने कविधयोनिगत पितृतुष्ट्युपपत्तिः । शास्त्रप्रमाणकत्वादस्यायंस्याचोद्यमेतत् । . एते देवा वस्वादयः प्रीताः प्रीणयन्ति यत्रतत्रस्थान् मनुष्याणां पितॄन् श्राद्धात्तरसानुप्रदानेनेत्यर्थः । सर्वप्राणिगतत्वाच्चैषां सर्वावस्थितपितृतर्पण सामर्थ्यमविरुद्धम् ।' विश्वरूप ( याज्ञ० १।२६५, पृ० १७१ ) ।
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