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अस्पृश्यता के कुछ अपवाद; निष्कर्ष
१९९५ प्राचीन एवं मध्यकालीन भारतीयों ने तन, मन, (धन,) स्थल (जहाँ वे रहते थे या धार्मिक कृत्य करते थे), पात्रों (उनके द्वारा व्यवहृत बरतनों), भोजन-सामग्री एवं पूजा-सामग्री की पवित्रता पर बहुत ही बल दिया है। आधुनिक काल के लोगों को द्रव्यशुद्धि-सम्बन्धी कतिपय नियम बहुत कड़े लगते होंगे; किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि प्राचीन भारतीयों का ऐसा विचार था कि शुद्ध भोजन से ही शुद्ध मन की प्राप्ति होती है (देखिए छान्दोग्योपनिषद् - २६।२ “आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः” एवं हारीत)। यह ज्ञातव्य है कि शुद्धि-सम्बन्धी (यथा-अन्नों की ढेरी या सिद्ध अन्नों की पुंजीकृत मात्रा के विषय में) कतिपय नियम सुविधा एवं साधारण जानकारी पर निर्भर थे। आजकल जहाँ भी कहीं भोजन, पान करते हुए हम सम्भवतः नियम-विरोध के सीमातिक्रमण से पीड़ित हो रहे हैं।
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