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भूमि-शुद्धि मूर्तियों की शुद्धि वा पुनः प्रतिष्ठा; जल की पावनता
११८७ बहन, अवलेपन, वापन एवं पर्जन्यवर्धन । इन पाँचों द्वारा अमेध्या भूमि की ( जहाँ शवदाह होता है या चाण्डाल रहते हैं) भी शुद्धि की जा सकती है, या चार विधियों से ( अमेध्या के विषय की पर्जन्यवर्षण या दहन विधि को छोड़कर); बुष्टा भूमि तीन विधियों (खनन, दहन एवं अवलेपन) से; या दो विधियों (खनन या दहन ) से तथा मलिन एक विधि (खनन) से शुद्ध की जाती है। "
स्मृत्यर्थसार ( पृ० ७३-७४) ने व्यवस्था दी है कि लोह या किसी अन्य धातु की प्रतिमा यदि कुछ अशुद्ध हो जाय तो वह पंचगव्य द्वारा, भस्म से रगड़कर स्वच्छ किये जाने के उपरान्त, पवित्र की जा सकती है; इसी प्रकार यदि प्रस्तर- प्रतिमा अशुद्ध हो जाय तो वह वल्मीक ( दीमक द्वारा निर्मित ढूह) की मिट्टी एवं जल से स्वच्छ कर पंचगव्य से शुद्ध की जाती है। यदि कोई प्रतिमा विष्ठा, मूत्र एवं ग्राम्य-मिट्टी से अशुद्ध हो जाय तो वह पाँच दिनों तक पंचगव्य में डुबोये जाने पर शुद्ध होती है, किन्तु इसके पूर्व वह गोमूत्र, गोबर, वल्मीक की मिट्टी से स्वच्छ की जाती है और उसका फिर से संस्थापन ( प्रतिष्ठा) किया जाता है। निर्णयसिन्धु ( ३, पूर्वार्ध, पृ० ३५१-५२), धर्मसिन्धु ( ३, पृ० ३२४) एवं अन्य मध्य काल के निबन्धों में प्रतिमा की पुनः प्रतिष्ठा की बात पायी जाती है, जब कि प्रतिमा चाण्डाल या मद्य के स्पर्श से अपवित्र हो जाय या अग्नि से जला दी जाय या पापियों या ब्राह्मण रक्त से अशुद्ध हो जाय । निम्नलिखित दस स्थितियों में प्रतिमा का देवत्व समाप्त हो जाता है--जब प्रतिमा दो या तीन टुकड़ों में टूट जाय, या इधर-उधर से टूट जाय, या जल जाय, अपने आसन से च्युत हो नीचे गिर जाय, या अपमानित हो जाय, या जिसकी पूजा बन्द हो जाय, या गधा एवं ऐसे ही पशुओं का स्पर्श हो जाय, या मलिन भूमि पर गिर जाय, या अन्य देवताओं के मन्त्रों से पूजित हो जाय, या पतित-स्पृष्ट हो जाय यदि प्रतिमा डाकुओं, चाण्डालों, पतितों से छू जाय, कुत्ते या रजस्वला नारी या शव से छू जाय तो पुनः प्रतिष्ठा आवश्यक है ।
विष्णुधर्मसूत्र (२३०३४) ने कहा है कि अशुद्ध होने पर प्रतिमा उसी प्रकार शुद्ध की जाती है जिस प्रकार उसकी धातु या जिस वस्तु से वह बनी होती है वह शुद्ध की जाती है और उसके उपरान्त उसकी पुनः प्रतिष्ठा होती है । यदि प्रतिष्ठित प्रतिमा की पूजा एक दिन, दो दिन, एक मास या दो मास बन्द हो जाय या वह शूद्रों या रजस्वला स्त्रियों से छू जाय तो उचित समय पर पुण्याहवाचन किया जाना चाहिए, विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोज देना चाहिए, प्रतिमा रात भर पानी में रखकर दूसरे दिन पंचगव्य पूर्ण घड़े से मन्त्रों के साथ नहला दी जानी चाहिए, इसके पश्चात् अन्य घड़े में नौ प्रकार के रत्न डालने चाहिए, उस पर १००८ या १०८ या २८ बार गायत्री मन्त्र पढ़ा जाना चाहिए और तब उस घड़े के जल से प्रतिमा को स्नान कराना चाहिए, इसके उपरान्त पुरुषसूक्त के एवं मूलमन्त्र के १००८ या १०८ या २८ बार पाठ के साथ पवित्र जल से स्नान कराना चाहिए। इसके उपरान्त पुष्पों के साथ उसकी पूजा की जानी चाहिए और मात एवं गुड़ का नैवेद्य चढ़ाना चाहिए।
अति प्राचीन काल से जल को शुद्धिकारक माना गया है। ऋ० (७।४४ एवं ४९) में जलों को देवत्व प्रदान किया गया है और उन्हें दूसरों को शुद्ध करने वाले कहा गया है (ऋ० ७।४९।२ एवं ३, 'शुचयः पावकाः) । और देखिए ऋ० (१०1९ एवं १०), अथर्ववेद (१।३३।१ एवं ४), वाजसनेयी संहिता (४२), शतपथब्राह्मण (१/७/४/१७) ।"
५९. वहनं खनन भूमेरवलेपनवापन । पर्जन्यवर्षणं चेति शौचं पञ्चविधं स्मृतम् ॥ पञ्चधा वा चतुर्धा वा भूरमेध्या विशुध्यति । द्विधा त्रिधा वा तुष्टा तु शुध्यते मलिनेकधा ।। देवल (शु० कौ० पू० १०१, जहाँ वापन का अर्थ 'मृदन्तरेण पूरणम्' अर्थात् अन्य मिट्टी से भर देना बताया गया है) ।
६०. द्वदमापः प्रबहतावद्यं च मलं च यत् । यच्चामिद्रोहानृतं यच्च शेपे अभीदणम् । आपो मा तस्मादेनसः
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