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द्रव्य-शुद्धि; कुछ वस्तुओं की स्वतः शुद्धि
के मत से उपनयन संस्कार तक । मनु (५।१२७-१३३), याज्ञ० ( १।१८६, १९१ -१९३), विष्णु ० ( २३।४७-५२), बौघा० घमं० ( १/५/५६-५७, ६४ एवं ६५), शंख (१६।१२- १६), मार्कण्डेयपुराण ( ३५। १९-२१) का कथन है। कि निम्नलिखित वस्तुएँ सदा शुद्ध रहती हैं- जो वस्तु अशुद्ध होती न देखी गयी हो; जो पानी से स्वच्छ कर दी जाती है; जिसे ब्राह्मण शुद्ध कह दे ( जब कि सन्देह उत्पन्न हो गया हो ) ; किसी (पवित्र) स्थल पर एकत्र जल, जो देखने में किसी अपवित्र पदार्थ से अशुद्ध न कर दिया गया हो, जो मात्रा में इतना हो कि कोई गाय उससे अपनी प्यास बुझा सके और जो गंध, रंग एवं स्वाद में (शुद्ध) जल की भांति हो; शिल्पी का हाथ ( धोबी या रसोइया का हाथ जब कि वे अपने कार्यों में संलग्न हों ) ; बाजार में खुले रूप में बिकनेवाले पदार्थ, यथा--यव (जो ) एवं गेहूं (जिन्हें क्रय करनेवालों ने चाहे छू मभी लिया हो ) ; भिक्षा (जिसे ब्रह्मचारी ने मार्ग में घर-घर से एकत्र किया हो ) ; संभोग के समय स्त्री का मुख; कुत्तों, चाण्डालों एवं मांसमक्षी पशुओं से छीना गया पशु-मांस (सूर्य की ) किरणें, अग्नि, धूलि, ( वृक्ष आदि की) छाया, गाय, अश्व, भूमि, वायु, ओस, मक्खियां, गाय दुहते समय बछड़ा - ( अन्तिम ) किसी व्यक्ति का स्पर्श हो जाने पर भी शुद्ध रहते हैं। यह भी कहा गया है कि कुछ पक्षी एवं पशु या तो शुद्ध होते हैं या उनके कुछ शरीरभाग शुद्ध माने जाते यथा - याज्ञ० ( १११९४ ) का कथन है कि बकरियों एवं अश्यों का मुख शुद्ध होता है, किन्तु गायों का मुख नहीं । बौधायन ( अपरार्क, पृ० २७६) ने कहा है कि मुख को छोड़कर गाय एवं दौड़ती या घूमती हुई बिल्ली शुद्ध मानी जाती है। बृहस्पति एवं यम ( अपरार्क, पृ० २७६ ) का कथन है " " ब्राह्मण के पाँव, बकरियों एवं अश्वों का मुख, गायों का पृष्ठ भाग एवं स्त्रियों के सभी अंग शुद्ध होते हैं; गाय पृष्ठ भाग से, हाथी स्कन्ध भाग से, अश्व सभी अंगों से एवं गाय का गोबर एवं मूत्र शुद्ध हैं।" अत्रि ( २४०, २४१ ) के भी वचन ऐसे ही हैं- “खान एवं भोजनालय (या वे स्थान जहाँ अन्न आदि पीसे जाते हैं) से निकाली हुई वस्तुएँ अशुद्ध नहीं होतीं, क्योंकि ऐसे सभी स्थान (जहाँ समूहरूप में वस्तुएँ तैयार होती हैं), केवल जहाँ सुरा बनती हो वैसे स्थानों को छोड़कर, पवित्र होते हैं। सभी भूने हुए पदार्थ, भूने हुए जौ एवं अन्य अन्न, खजूर, कपूर और जो भी भली भाँति भूने हुए रहते हैं, पवित्र होते हैं।"** अत्रि (५/१३ ) में पुनः आया है - "मक्खियाँ, शिशु, अखंड धारा, भूमि, जल, अग्नि, बिल्ली, लकड़ी का करछुल एवं नेवला ( नकुल) सदैव पवित्र होते हैं।" पराशर (१०।४१) का कथन है- “आकाश, वायु, अग्नि, जल (जो पृथिवी
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४२. मुखवजं तु गौर्मेध्या मार्जारश्चक्रमे (? श्चामे) शुचिः । बौषा० ( अपरार्क, पृ० २७६) । और देखिए शंख (१६।१४)।
४३. बृहस्पतिः । पादौ शुची ब्राह्मणानामजाश्वस्य मुखं शुचि । गवां पृष्ठानि मेध्यानि सर्वगात्राणि योषिताम् ॥ यमः । पृष्ठतो गौर्गजः स्कन्धे सर्वतोऽश्वः शुचिस्तथा । गोः पुरीषं च मूत्रं च सर्वं मेध्यमिति स्थितिः ॥ पृष्ठशब्दोत्र मुखव्यतिरिक्तविषयः । अपरार्क ( पृ० २७६ ) ।
४४. आकराहृतवस्तूनि नाशुचीनि कदाचन। आकराः शुचयः सर्वे वर्जयित्वा सुराकरम् ॥ भृष्टा भृष्टयवाश्चैव तथैव चणकाः स्मृताः । खर्जूरं चैव कर्पूरमन्यद् भृष्टतरं शुचि ॥ अत्रि ( २४०-२४१) । 'आकराः ... करम्' मौ० ० सू० ( १/५/५८) में भी आया है। शु० कौ० ( पृ० २५८) ने शंख (१६।१३) के पद्यार्ष 'शुद्धं नदीगतं तोयं सर्व एव तथाकराः' को उद्धृत करते हुए कहा है- 'सर्व एवाकरा धान्याविमर्दनस्थानानि तथा अन्नलाजाविनिष्पत्तिस्थानानि चेत्यर्थः ।'
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४५. मक्षिका सन्ततिर्धारा भूमिस्तोयं हुताशनः । माजरश्चैव वर्षी च नकुलश्च सवा शुचिः ॥ अत्रि ( ५ ।११) । और देखिए विश्वरूप (याश ० १ । १९५ ), लघुहारीत (४३) । शुद्धिकौमुदी ( पृ० ३५७) ने व्याख्या की है— 'सन्ततिः शिशुः पञ्चवर्षाम्यन्तरवयस्कः, धारा तु पतन्ती ।'
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