________________
आशौच पर कुछ सुनाव; माशीच का गलन; अन्य शुद्धियों का विचार ११८१ घर में प्रवेश कर सकते थे। प्रसव से स्त्री अशुद्ध मानी जाती थी और अशद्धि के दिन बच्चे के लड़का या लड़की होने पर निर्भर थे। भारत में आर्य लोगों ने जनन एवं मरण से सम्बन्धित धारणाएं अपने पूर्व-पुरुषों से ही सम्भवतः सीखीं। कल्पना द्वारा यह कहा जा सकता है-वैदिक आर्यों के पूर्व-पुरुषों ने ऐसा समझा होगा कि जो लोग मृत के कपड़े छूते हैं या मरने के पूर्व उसके वस्त्रों का प्रयोग करते हैं, वे भी मृत के रोग से पीड़ित होते हैं (विशेषतः प्लेग, हैजा, मियादी ज्वर आदि रोगों से), अतः ऐसे लोगों को अन्य लोगों से दस दिनों तक दूर रखने से बीमारी फैलने की संभावना नहीं रहती थी। अतः जो लोग मृत के शव को छूते थे, शव को श्मशान तक ढोते थे, वे तथा अन्य सम्बन्धी लोग अशुद्ध माने जाते थे और दस दिनों तक पृथक् रखे जाते थे। आगे चलकर सभी प्रकार के रोगों एवं कारणों से उत्पन्न मृत्यु पर आशौच एवं पथक्त्व प्रयोग में आने लगा। मरणाशौच से ही जननाशौच की भावना उत्पन्न हुई। स्मृतिकारों ने दोनों को समान माना; “जिस प्रकार सपिण्डों के लिए मरणाशीच दस दिनों का होता है उसी प्रकार जननाशौच की भी व्यवस्था है।" रजस्वला स्त्रियों के विषय के नियम तै० सं० में भी पाये जाते हैं। इस विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय १२।
___ अब हम आशौच के अतिरिक्त शुद्धि के अन्य स्वरूपों पर विचार करेंगे। द्रव्य-शुद्धि का तात्पर्य है किसी वस्तु से लगे हुए दोष का दूरीकरण, और यह दो प्रकार की है। शरीरशुद्धि एवं बाह्य द्रव्यशुद्धि (मनु ५।११० एवं अपराक
।।" हमने पहले ही देख लिया है कि ऋग्वेद (८१९५७-९ एवं ७१५६।१२ जहाँ क्रम से 'शुद्ध' एवं 'शुचि' शब्द १३ एवं ६ बार आये हैं) 'शुद्धि' एवं 'शुचि' पर बहुत बल देता है। ऐसी वैदिक उक्तियाँ हैं कि ज्योतिष्टोम में प्रयुक्त ग्रह (पात्र, प्याले) एवं अन्य यज्ञिय पात्र ऊन से स्वच्छ किये जाते हैं, किन्तु चमसों के साथ ऐसा नहीं किया जाता। ऐत. ब्रा० (३२॥४). में आया है कि आहिताग्नि का दूध, जो होम के लिए गर्म किया गया था, अपवित्र हो जाय (अमेध्य, चींटी या किसी अन्य कीड़े के गिरने से) तो उसे अग्निहोत्रहवणी में ढारकर आहवनीय अग्नि के पास भस्म में डाल देना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि यज्ञ-पात्रों एवं यज्ञिय वस्तुओं की शुद्धि पर बहुत ध्यान दिया जाता था। गौतम (८।२४), अत्रि (३३ एवं ३५), मत्स्यपुराण (५२६८-१०), बृहस्पति (अपराकं पृ० १६४) के अनुसार आठ आत्मगुणों के अन्तर्गत शुद्धि का नाम भी है। गौतम की व्याख्या में हरदत्त ने शौच के चार प्रकार दिये हैं-धन-सम्बन्धी शुद्धि, मानसिक शुद्धि, शारीरिक शुद्धि एवं वाणी-शुद्धि। अत्रि एवं बृहस्पति (अपरार्क, पृ० १६४) के अनुसार शौच में अभक्ष्य-परिहार, अनिन्दित लोगों के साथ संसर्ग एवं स्वधर्म में व्यवस्थान पाये जाते हैं। बहुत-से लोग शौच को दो भागों में बाँटते हैं; बाह्य एवं आन्तर (आभ्यन्तर) देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय १७, जहाँ बौधा०प० सू०(१।५।३-४), हारीत, दक्ष आदि के वचनों की ओर संकेत है। अग्नि. (३७२।१७-१८) ने दक्ष (५॥३) के समान ही मत दिया है। वनपर्व (२००।५२) ने वाणी एवं कर्म की शुद्धता तथा जल से प्राप्त शुद्धता की चर्चा की है। पद्मपुराण (२।६६१८६८७) ने मानसिक वृत्ति पर बल दिया है और कहा है कि नारी अपने पुत्र एवं पति का आलिंगन विभिन्न मनोभावों से करती है।
लिंगपुराण में एक सुन्दर उक्ति मिलती है जिसमें आया है कि आभ्यन्तर शौच (शुचिता) बाह्य शौच से उत्तम है; उसमें यह आया है कि स्नान करने के उपरान्त भी आभ्यन्तर शौच के अभाव में व्यक्ति मलिन है, शैवाल
४०. द्रव्यस्य दोषापगमः शुतिः। तत्र द्विविधा शुभिः शरीरशुद्धिर्वाह्यद्रव्यशुद्धिश्च । अपरार्क (पृ२५२२५३); तत्राधिर्नाम द्रव्यादेः स्पर्शनाखानहतापावको दोषविशेषः। शुद्धिस्तु संस्कारविशेषोत्पादिता तत्रिवृत्तिः। हेमानि (धार, १० ७८७)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org