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धर्मशास्त्र का इतिहास
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नाम लेकर पाँचवाँ पिण्ड देना चाहिए। ब्राह्मणों को दक्षिणा के साथ सन्तुष्ट कर ( जब वे आचमन कर लें ) उनमें से सबसे बड़े गुणवान् को मृत के प्रतिनिधि रूप में मानकर और उसे गोदान, भूमिदान, घनदान से संतुष्ट कर सभी ब्राह्मणों की, जिनके हाथ में पवित्र रहते हैं, जल-तिल देने को उद्वेलित करना चाहिए और अन्त में अन्य सम्बन्धियों के साथ भोजन करना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचन से प्रकट होता है कि नारायणबलि केवल आत्महन्ताओं के लिए की जाती है और आत्महन्ता की मृत्यु के एक वर्ष उपरान्त ही यह की जाती है। हारलता ( पृ० २१२ ) का भी यही कहना है और उसने विष्णु ० के एक श्लोक का हवाला देते हुए उन लोगों के लिए भी अनुमोदित माना है जो गौओं या ब्राह्मणों द्वारा मार डाले ये हैं या जो पतित हैं, और इस बलि को देशविशेष-व्यवस्था तक सीमित ठहराया है। नारायणबलि के विषय में नारायण भट्ट की अन्त्येष्टिपद्धति में विस्तार के साथ विवेचन पाया जाता है । और खिए स्मृत्यर्थसार ( पृ० ८५-८६ ), बृहत्पराशर (५, पृ० १७५ - १७६), निर्णयसिन्धु, हेमाद्रि, गरुड़पुराण (३|४|११३-११९) ।
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वैखानसस्मार्तसूत्र (१०।९ ) ने भी नारायणबलि की पद्धति का संक्षिप्त वर्णन किया है। उसमें आत्मघातकों, मारे गये लोगों एवं संन्यासियों के विषय में इस बलि का उल्लेख है । उसमें यह भी आया है कि यही कृत्य १२ वर्षों के उपरान्त मृत महापातकियों के लिए भी करना चाहिए। बौधायनगृह्य शेषसूत्र ( ३।२० एवं २१ ) में दो विघियां वर्णित हैं, जिनमें दूसरी पश्चात्कालीन है और उसमें चाण्डालों आदि द्वारा मारे जाने का प्रसिद्ध श्लोक भी है। " आशौच-नियमों के पाँचवें अपवाद - प्रकार में वे नियम आते हैं जिनके अनुसार व्यक्ति को आशौच करना अनिवार्य नहीं है । गौतम ( १४।८-१० ) ने व्यवस्था दी है कि सपिण्ड लोग उन लोगों के लिए, जो गौओं एवं ब्राह्मणों के लिए मर जाते हैं, जो राजा के क्रोध के कारण मार डाले जाते हैं और जो रणभूमि में मर जाते हैं, आशौच नहीं मनाते, केवल सद्यः शौच करते हैं। मनु ( ५।९५ एवं ९८ ) के मत से सपिण्ड लोग उनके लिए, जो डिम्बाहव (शस्त्र-रहित झगड़े या दंगे) में, बिजली से या राजा द्वारा (किसी अपराध के कारण), गोब्राह्मण-रक्षा में, क्षत्रिय के समान रणभूमि में तलवार से मार डाले जाते हैं, आशौच नहीं मनाते और वे लोग भी जिन्हें राजा ( अपने कार्यवश ) ऐसा करने नहीं देना चाहता, आशौच नहीं मनाते । " शातातप (स्मृतिच०, आशौच, पृ० १७१ ने इसे वसिष्ठ का कथन माना है) के मत से यति के मरने पर उसके पुत्र एवं सपिण्ड उसके लिए जल तर्पण, पिण्डदान एवं आशौच नहीं करते। धर्मसिन्धु ( पृ० ४४९ ) का कथन है कि यह नियम सभी प्रकार के यतियों के लिए है, चाहे वे त्रिदण्डी हों, एकदण्डी हों, हंस
३३. चाण्डालावकात् सर्पाद् ब्राह्मणाद्वैद्युतावपि । दंष्ट्रिम्यश्च पशुभ्यश्च मरणं पापकर्मणाम् ॥ बौ० गु० शेषसूत्र ( ३।२१) । इसी को अपरार्क ( पृ० ८७७) ने यम का कहा है, शुद्धिप्रकाश ( पृ० ५६ ) ने स्मृत्यन्तर माना है और मिता० (याज्ञ० ३।६) ने बिना नाम के उद्धृत किया है।
३४. गोब्राह्मणहतानामन्वक्षम् । राजकोषाच्च । युद्धे । गौतम ० ( १४।८-१० ) । हरवत्त ने व्याख्या की है— 'अन्ated प्रत्यक्ष्यते शवस्तावत्संस्कारान्तं स्नात्वा शुध्येरन्निति ।' मिता० ( याश० ३।२१) ने इसे इस प्रकार व्याख्यात किया है—' तत्सम्बन्धिनां चान्वक्षमनुगतमक्ष मन्वक्षं सद्यः शौचमित्यर्थः ।'
३५. डिम्बा हतानां च विद्युता पार्थिवेन च । गोब्राह्मणस्य चैवार्थे यस्य चेच्छति पार्थिवः । मनु ( ५०९५ ) . । कुल्लूक एवं हारलता (पू० १११) ने 'डिम्बाहव' को 'नृपतिरहित युद्ध' कहा है, किन्तु हरवत्त ने 'डिम्ब' को 'जनसंमर्व' माना है; अपरार्क (पू० ९१६) ने डिम्बाहव को अशस्त्रकलह एवं शुद्धिकल्पतर (१० ४६ ) ने इसे ' अशस्त्रकलहः संमर्दो वा' के रूप में व्याख्यात किया है।
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