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धर्मशास्त्र का इतिहास
का आशौच जनन के आशौच द्वारा, चाहे वह समानावधि का हो चाहे कम का, दूर नहीं किया जा सकता; मरणोत्पन्न एक पक्षिणी का आशीच तीन दिनों या दस दिनों वाले जननोत्पन्न आशौच को काट नहीं सकता और जनन-जनित दस दिनों का आशौच मरण-जनित तीन दिनों के आशौच को नहीं दूर कर सकता।" यही बहुत से लेखकों का मत है। एक लेखक का कथन है कि जननोत्पन्न आशौच, यद्यपि वह अपेक्षाकृत लम्बी अवधि का हो, मरणोत्पन्न कम अवधि वाले आशौच से दूर नहीं हो सकता ।
मिता० ( याज्ञ० ३।२०, पूर्वार्ध) ने उपर्युक्त आशौच सन्निपात के विषय में एक अपवाद दिया है। यदि किसी की माता मर जाय और आशौचावधि के समाप्त न होने पर ही यदि उसका पिता भी मर जाय तो ऐसा नहीं होता कि माता के मरण से उत्पन्न आशौच के साथ ही पिता के मरण का आशौच समाप्त हो जाय ; प्रत्युत पुत्र को पिता के मरणजनित आशौच की पूरी अवधि बितानी पड़ती है। इसी प्रकार यदि पिता पहले मर जाय तो इस आशौचावधि में माता के मी मर जाने से उत्पन्न आशौच पिता की मृत्यु से जनित आशौच के साथ ही सामाप्त नहीं हो जाता, प्रत्युत पिता की मृत्यु से उत्पन्न आशौच कर लेने के उपरान्त माता के लिए एक पक्षिणी का अतिरिक्त आशौच करना पड़ता है । ज्ञातव्य है कि अपरार्क ने उपर्युक्त उक्ति को दूसरे ढंग से समझा है, उनका कथन है कि यदि पिता माता के मरण से उत्पन्न आशौचावधि में मर जाता है तो सामान्य नियम प्रयुक्त होता है, यथा--माता के लिए किये गये आशौच की समाप्ति पर ही शुद्धि प्राप्त हो जाती है ।
यदि कोई मरण-जनित आशौच मनाया जा रहा हो और इसी बीच में जनन-जनित आशौच हो जाय तो उत्पन्न पुत्र का पिता जातकर्म आदि करने के योग्य रहता है, क्योंकि प्रजापति (मिता०, याज्ञ० ३।२०; मदनपारिजात, पृ० ४३९) के मत से वह उस अवसर पर शुद्ध हो ही जाता है।
षडशीति (२२) ने व्यवस्था दी है कि बाद में आनेवाले जनन या मरण-उत्पन्न आशौचों में प्रथम आशौच की समाप्ति के विषय में जो नियम है उसमें तीन अपवाद हैं, यथा-बच्चा जननेवाली नारी, जो व्यक्ति वास्तव में शव जाता है और मृत के पुत्र; अर्थात् सूतिका को अस्पृश्यता की अवधि बितानी ही पड़ती है, जो शव जलाता है उसे दस दिनों का आशौच करना ही पड़ता है, भले ही जनन या शवदाह मृत्यूत्पन्न अन्य आशौच के बीच ही में क्यों न किये गये हों ।
सद्यः शौच ( उसी दिन शुद्धि) – हमने पहले ही देख लिया है कि जनन-मरणजनित आशौच दक्ष (६२) के अनुसार दस प्रकार के होते हैं, जिनमें प्रथम दो के नाम हैं सद्यः शौच एवं एकाह। 'एकाह' का अर्थ है दिन एवं रात दोनों। 'सद्यः' का सामान्य अर्थ है 'उसी या इसी समय या तत्क्षण या तात्कालिक या शीघ्र आदि ।"" किन्तु जब याज्ञ० ( ३।२९), पराशर ( ३।१०), अत्रि (९७) तथा अन्य स्मृतियाँ 'सद्यः शौच' शब्द का प्रयोग करती हैं तो वहाँ उसका अर्थ है- 'पूरे दिन या तीन दिनों या दस दिनों तक आशौच नहीं रहता, प्रत्युत स्नान करने तक या दिन- समाप्ति तक या रात के अन्त तक या उस दिन तक, जिस दिन घटना घटित होती है, रहता है। याज्ञ० (३।२३ 'आ दन्तजन्मनः सद्य आ चूडानैशिकी स्मृता' ) से प्रतीत होता है कि 'सद्यः' का अर्थ है एक दिन का भाग या एक रात का भाग (जैसा विषय हो) एवं 'नैशिकी' का अर्थ है 'पूरा दिन एवं रात।"" शुद्धितत्त्व ( पृ० ३४०-३-४१) ने व्याख्या की है कि 'सद्यः' का अर्थ है
१८. पाणिनि (५।३।२२ ) । इस सूत्र का वार्तिक है—'समानस्य सभावो यस् चाहनि', महाभाष्य ने इसे 'समानेऽहनि सद्यः' समझाया है।
१९. अत्राशौचप्रकरणे अहर्ब्रहणं रात्रिग्रहणं चाहोरात्रोपलक्षणार्थम् । मिता० ( पाश० ३।१८) ।
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