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धर्मशास्त्र का इतिहास उपरान्त सौतेले भाई का पुत्र, तब पिता, माता, तब पतोहू और अन्त में बहिन। अपनी बहिनों, सौतेली बहिनों, छोटी एवं बड़ी बहिनों के विषय में वे ही नियम लागू होते हैं जो भाइयों के विषय में हैं; बहिन के अभाव में बहिन का पुत्र अधिकारी होता है। यदि बहुत से भानजे हों तो भाई वाले नियम ही लागू होते हैं। इसके उपरान्त चाचा, चचेरा भाई, अन्य सपिण्ड लोग आते हैं; तब समानोदक तथा कुलोत्पन्न अन्य लोग अधिकारी होते हैं। इन लोगों के अभाव में माता के सपिण्ड लोग, यथा-नाना, मामा एवं ममेरा भाई; माता के सपिण्डों के अभाव में मुआ या मौसी के पुत्र; इनके अभाव में पित बन्धु, यथा-पिता की भुआ के पुत्र, पिता की माता की बहिन के पुत्र, पिता के चाचा के पुत्र इसके उपरान्त मातृबन्धु, यथा-माता की भूआ के पुत्र; इनके अभाव में मृत का शिष्य; शिष्य के अभाव में मृत के दामाद या श्वशर; इनके अभाव में मित्र; मित्र के अभाव में वह जो ब्राह्मण (मत) की संपत्ति ग्रहण करता है। यदि मत ब्राह्मण को छोड़ किसी अन्य जाति का होता है तो राजा अधिकारी होता है (जो ब्राह्मण की सम्पत्ति को छोड़कर अन्य उत्तराधिकारी-हीन की सम्पत्ति का स्वामी हो जाता है) और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मत की अन्त्येष्टि-क्रिया एवं श्राद्धकर्म कराता है।
धर्मसिन्धु (पृ० ३७०) में स्त्रियों के विषय में श्राद्धाधिकारियों का क्रम यों है-कुमारी कन्या के विषय में पिता अधिकारी है, इसके उपरान्त उसके भाई आदि; यदि स्त्री विवाहिता हो तो पुत्र, इसके उपरान्त उसकी सौत, तब सौत का पौत्र और तब प्रपौत्र; इनके अभाव में पति पति के अभाव में पूत्री, तब पूत्री का पूत्र; इसके अभाव में देवर, तब देवर का पुत्र; इसके अभाव में पतोहू; तब मृत स्त्री का पिता; तब उसका भाई; इसके उपरान्त उसका भतीजा तथा अन्य लोग।
दत्तक पुत्र अपने स्वाभाविक (असली) पिता का श्राद्ध पुत्र तथा अन्य अधिकारी के अभाव में कर सकता है। यदि ब्रह्मचारी मर जाय तो उसकी मासिक, वार्षिक तथा अन्य श्राद्ध-क्रियाएँ पिता तथा माता द्वारा सम्पादित होनी चाहिए। ब्रह्मचारा अपने पिता एवं माता या चचेरे पितामह, उपाध्याय एवं आचार्य के शवों को ढो सकता है, शवदाह एवं अन्य क्रियाएँ कर सकता है, यदि अन्य अधिकारी उपस्थित हों तो उसे उपर्युक्त लोगों का श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। ब्रह्मचारी उपर्युक्त पाँच के अतिरिक्त किसी अन्य का शवदाह तथा अन्य श्राद्धकर्म नहीं कर सकता। यदि ब्रह्मचारी दस दिनों तक क्रियाएँ करता है तो उसे उतने दिनों तक अशौच मानना पड़ता है, किन्तु यदि वह केवल शवदाह करता है तो केवल एक दिन का अशीच मानता है। अशौच के दिनों में उसके आवश्यक या अपरिहार्य कार्य बन्द नहीं होते, किन्तु उसे अशौच मनानेवाले अन्य सम्बन्धियों के लिए पकाया गया भोजन नहीं करना चाहिए और न उनके साथ निवास करना चाहिए; यदि वह ऐसा करे तो उसे प्रायश्चित्त करना पड़ता है और पुन: उपनयन संस्कार से अभिषिक्त होना पड़ता है।
यह निश्चित-सी बात है कि बौधायन, लिंगपुराण (श्राद्धप्रकाश, पृ० ३६१-३७१), मार्कण्डेयपुराण, पितृदयिता (पृ०८२) तथा कुछ अन्य ग्रन्थों ने मनुष्य को जीवन-काल में ही अपनी अन्त्येष्टि करने की आज्ञा दे दी है। इस पर हम आगे श्राद्ध के अध्याय में लिखेंगे। यदि कोई व्यक्ति पतित हो जाय और प्रायश्चित्त करना अस्वीकार करे तो
५४. यहाँ पर सपिण्ड का तात्पर्य है उस व्यक्ति से जो मृत के गोत्र का होता है, किन्तु उसे एक ही पुरुष पूर्वज से सातवीं पीढ़ी के अन्तर्गत होना चाहिए। समानोदक का तात्पर्य है आठवीं पीढ़ी से लेकर चौदहवीं पीढ़ी तक का समान गोत्र वाला, जिसके पूर्वज एक ही पुरुष पूर्वज के हों। गोत्रज का अर्थ है मृत के ही गोत्र का कोई सम्बन्धी जो एक ही पूर्व से चौदहवीं पीढ़ी के उपरान्त उत्पन्न हुआ हो।
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