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धर्मशास्त्र का इतिहास तीन दिनों का तथा सगोत्र लोग एक दिन का आशौच मनाते हैं (धर्मसिन्धु,पृ० ४२७) । यही निर्णय कुछ भेदों के साथ गौतम (१४।१५-१६), बौधा० घ० सू० (१।५।१३६), पराशर (३।२४), मनु (५।६६), याज्ञ० (३।२०) एवं आशौचदशक (प्रथम श्लोक) ने भी दिया है। जन्म, मृतोत्पत्ति या सातवें, आठवें या नवें मास के गर्भपात में माता दस दिनों तक अस्पृश्य रहती है, किन्तु पिता तथा सपिण्ड लोग प्रसव में स्नान के उपरान्त अस्पृश्य नहीं ठहरते (या० ३।९१)। प्राचीन काल में पिता के जननाशौच के विषय में कई एक मत प्रचलित थे (बौ० घ० सू० १।५।१२५-१२८)। यद्यपि जनन के १० दिनों के उपरान्त स्त्री स्पृश्य हो जाती है, किन्तु उसके उपरान्त २० दिनों तक (पुत्र उत्पन्न किया हो तो) धार्मिक कृत्य करने योग्य नहीं रहती। किन्तु यदि स्त्री पुत्री उत्पन्न करती है तो ३० दिनों तक (जनन के उपरान्त कुल मिलाकर ४० दिनों तक) धार्मिक कृत्य नहीं कर सकती । प्रचेता के मत से सभी वर्गों की स्त्रियाँ बच्चा जनने के दस दिनों के उपरान्त शुद्ध हो जाती हैं। देवल का कथन है कि १० या १२ दिनों की अवधि के उपरान्त जननाशौच नहीं रहता। यदि स्त्री अपने पिता या भाई के घर में बच्चा जने तो माता-पिता एवं भाइयों को एक दिन का आशौच मानन पड़ता है (धर्मसिन्धु,पृ.० ४२७), किन्तु यदि वह पति के घर बच्चा जने तो उसके पिता या भाई को अशुद्धि नहीं लगती। जब सगोत्रों को जननाशौच में रहना पड़ता है तो वे अस्पृश्य नहीं माने जाते (षडशीति, श्लोक ६)।
कुछ सामान्य नियमों के विषय में यहां कहना आवश्यक है। जब कोई ग्रन्थ 'अहः' (दिन) या रात्रि के आशीच की व्यवस्था करे तो इससे 'अहोरात्र' (दिन एवं रात्रि दोनों) समझना चाहिए। आहिताग्नि के विषय में आशौच के दिन शवदाह से गिने जाने चाहिए, किन्तु जो आहिताग्नि नहीं है उसकी मृत्यु के दिन से ही आशौच के दिन का आरम्भ समझ लेना चाहिए (आशौचदशक, श्लोक ४; कूर्म, उत्तरार्घ २३।५२)। पारस्कर० (३।१०) ने व्यवस्था दी है-'यदि कोई विदेश में जाकर मर जाय, तो समाचार मिलने पर उसके सम्बन्धियों को बैठ जाना चाहिए, जल-तर्पण करना चाहिए और आशौचावधि (१०, १२, १५ एवं ३० दिन, वर्णों के क्रमानुसार) के बचे दिनों तक अस्पृश्य रूप में रहना चाहिए; यदि आशौचावधि समाप्त हो चुकी हो तो उन्हें एक रात या तीन रातों तक 'आशौच' का पालन करना चाहिए।' यही बात मनु (५।७५-७६) ने भी कही है। ब्रह्मपुराण का कथन है-~'यदि कुल के जनन एवं मरण की बातें ज्ञात न हों और दाता दान करे या दान लेनेवाला दान ग्रहण करे तो पाप नहीं लगता।'
अब हम मरण के आशौच की चर्चा करेंगे। इस विषय में भी धर्मशास्त्रकारों में मतैक्य नहीं है, अतः पश्चात्कालीन ग्रन्थों (यथा धर्मसिन्धु) का ही हम विशेषतः उल्लेख करेंगे, कुछ स्मृति-वचनों की ओर भी संकेत करेंगे। मरणाशीच से व्यक्ति अस्पृश्य एवं धार्मिक कृत्य करने के अयोग्य हो जाता है। पारस्करगृह्यसूत्र (३।१०।२९-३०) ने सामान्यतः कहा है कि मरणाशीच तीन रातों तक रहता है, किन्तु कुछ ग्रन्थकारों ने इसकी अवधि दस दिनों की दी है। यदि बच्चा दस दिनों के भीतर ही मर जाय तो माता-पिता जननाशीच ही मनाते हैं और दस दिनों के उपरान्त शुद्ध हो जाते हैं, उतने दिनों तक पिता अस्पृश्य रहता है (कूर्मपुराण, शुद्धिकौमुदी, पृ० २१)। यदि बच्चा दाँत निकलने के पूर्व ही मर जाय तो सपिण्ड लोग स्नान करके शुद्ध हो जाते हैं, किन्तु माता-पिता को, यदि मृत बच्चा पुत्र है तो तीन दिनों का, और यदि मृत बच्चा लड़की है तो एक दिन का आशौच करना पड़ता है (और देखिए याज्ञ० ३।२३; शंख १५।४; अत्रि ९५ एवं आशौचक्शक, श्लोक २)। यदि बच्चा दाँत निकलने के पश्चात् किन्तु चूड़ाकरण के पूर्व अर्थात् तीसरे वर्ष के अन्त में मर जाय तो सपिण्डों को एक दिन एवं एक रात्रि का आशौच मनाना चाहिए (याज्ञ० ३।२३, शंख १५।५), किन्तु ऐसी स्थिति में माता-पिता को तीन दिनों का आशौच करना चाहिए। यदि बच्चा लड़की हो तो सपिण्ड लोग उसके तीसरे वर्ष की मृत्यु पर स्नान करके पवित्र हो जाते हैं। यदि चूड़ाकरण (या तीन वर्षों) के पश्चात् और उपनयन या विवाह (लड़कियों के विषय में) के बीच मृत्यु हो तो पिता एवं सपिण्ड तीन दिनों का आशौच मनाते हैं, किन्तु समानोदक लोग स्नान के उपरान्त पवित्र हो जाते हैं। उपनयन के उपरान्त सभी सपिण्ड लोग मृत्यु पर १० दिनों का (गौतम० १४।१; मनु
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