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मृत का स्मारक श्मशान (सामाधि, स्तूप, चिति) बनाना
११४७ को कर्ता बीच में रखता है, जिसका सम्मुख भाग पूर्व की ओर रहता है (यह कबन्ध का द्योतक है), तीन ईंटें सामने रखी जाती हैं, जो सिर को परिचायक हैं, तीन दाहिने और तीन बायें रखी जाती हैं (इस प्रकार दोनों पार्श्व बन जाते हैं) और तीन पीछे (पुच्छ माग की द्योतक) रखी जाती हैं। तत्पश्चात् वह (कर्ता) पृथिवी के गड्ढे में रखने के लिए कुछ तेल लाने की आज्ञा देता है। कुछ लोग दक्षिण-पूर्व कोण में गड्ढा खोदते हैं और वहीं से तेल मँगवाते हैं; कुछ लोग दक्षिण-पश्चिम में गड्ढा खोदते हैं और उत्तर की ओर मँगवाते हैं (वह इस विषय में जैसा चाहे कर सकता है)। समाधि अधिक बड़ी नहीं होनी चाहिए; क्षत्रियों के लिए बिना हाथ उठाये मनुष्य की ऊँचाई के बराबर हो सकती है, ब्राह्मणों के लिए मुख तक की लम्बाई तक, स्त्रियों के लिए नितम्बों तक, वैश्यों के लिए जंघाओं तक तथा शूद्रों के लिए घुटनों तक ऊँचाई होनी चाहिए, या सभी के लिए केवल घुटनों तक की ऊँची समाधि हो सकती है। जब तक समाधि बनती रहती है, लोगों को उत्तर की ओर बेंत का एक गुच्छ लेकर खड़ा रहना चाहिए। इस प्रकार उस गुच्छ को पकड़ने के उपरान्त पृथिवी पर नहीं रखना चाहिए प्रत्युत उसे घर में रखना चाहिए, क्योंकि वह सन्ततियों का परिचायक होता है। समाधि बनाने के उपरान्त उस पर कर्ता यव (जौ) बो देता है और सोचता है-“ये मेरे पाप को दूर करें (यवय)!" कर्ता समाधि को अवका नामक पौधों से ढक देता है, जिससे कि आर्द्रता बनी रहे और इसी प्रकार कोमलता के लिए दर्भ लगा देता है।
_____समाधि के चतुर्दिक खूटियां गाड़ दी जाती हैं; सामने पलाश की, उत्तर कोण में शमी की, पीछे वरण की, दाहिने (दाहिने कोण में) वृत्र की खूटी लगा दी जाती है। दक्षिण में कुछ टेढ़ी दो सीताएँ (कुंड) खोदकर उनमें दूध एवं जल छोड़ दिया जाता है और उत्तर ओर इसी प्रकार सात कुंड बनाये जाते हैं, उनमें जल छोड़ दिया जाता है जिससे पाप पार कर न आने पाये। उत्तरी कँडों में तीन पत्थर रखे जाते हैं और उन पर वाज० सं० (३५।१० = ऋ० १०५३१८) का पाठ कर चलना होता है। कर्ता अपामार्ग के पौधों से अपना मार्जन करते हैं और इस प्रकार पाप दूर करते हैं। इसके उपरान्त जहाँ जल पाया जाय वहाँ स्नान किया जाता है। वा० सं० (३५।१२) के पाठ के साथ कर्ता अंजलि में जल लेकर उस ओर फेंकता है जहाँ घृणास्पद व्यक्ति (दुर्मित्र) रहता है और इस प्रकार उस पर विजय पाता है। स्नान करके, कोरे वस्त्र पहनकर तथा एक कुल्हाड़ी को निचले भाग से पकड़कर सब लोग घर लौट आते हैं। गाँव की ओर वे लोग वा० सं० (३५।१४) को पढ़ते हुए आते हैं। घर पहुंचने पर उनके पास आँखों एवं पैरों में लगाने के लिए लेप लाया जाता है और इस प्रकार वे लोग अपने से मृत्यु को दूर करते हैं। घर में लौकिक अग्नि जला कर और उसके चतुर्दिक् वरण की लकड़ियां लगाकर वे आयुष्मान् अग्नि को स्रुव से आहुति देते हैं। इस विषय में वाज० सं० (३५।१७)का मन्त्र पुरोनुवाक्या (आमन्त्रणकारक सूक्त) का कार्य करता है। यह इसलिए किया जाता है कि अग्नि इन लोगों की रक्षा करे। यज्ञ-दक्षिणा के रूप में एक बूढ़ा बैल, पुराना जौ (यव), पुरानी कुर्सी और एक ऐसा पीठासन दिया जाता है जिस पर सिर को भी सहारा मिल सके। इच्छानुसार अधिक भी दिया जा सकता है। यह विधि उनके लिए है जिन्होंने अग्नि-चयन किया है। अन्य लोगों के लिए भी ऐसा ही होता है, केवल अग्नि-वेदिका नहीं बनायी जाती। समाधि के घेरे से एक मुट्ठी मिट्टी लाकर समाधि एवं ग्राम के बीच में रख दी जाती है और वाज० सं० (३५।१५) का पाठ कर दिया जाता है। इस प्रकार यह ऐसा घेरा बन जाता है जो पितरों एवं जीवित लोगों के बीच में मेंड का कार्य करता है और दोनों मिल नहीं पाते।
___सत्याषाढश्री० (२९।१।३) एवं बौधा० पि० सू० (१११७-२०) ने अग्निचयन करनेवाले की समाधि के निर्माण के लिए एक अति विस्तृत विधि दी है, जिसे हम यहाँ नहीं दे रहे हैं। समाधि बनाते समय वृक्ष की जड़ में रखे हुए अस्थि-पात्र को निकाला जाता है और अस्थियाँ कई प्रकार से शुद्ध की जाती हैं, यथा--एक घड़े के वाजिन (एक प्रकार के रस) में दही मिश्रित कर उसे उस पर उड़ेलते हैं, कई बैलों से युक्त हल से जोतकर मिट्टी उभाड़ते हैं।
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