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तिलांजलि या जलवान; पिण्डोदक-क्रिया
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ण्डों द्वारा वपन, स्नान, ग्राम एवं घर में प्रवेश कर लेने के उपरान्त नग्न-प्रच्छावन नामक श्राद्ध करना च प्रच्छादन श्राद्ध में एक घड़े में अनाज भरा जाता है, एक पात्र में घृत एवं सामर्थ्य के अनुसार सोने के टुकड़े या सिक्के भरे जाते हैं। अन्न पूर्ण घडे की गरदन वस्त्र से बँधी रहती है। विष्ण का नाम लेकर दोनों पात्र किसी कलीन दरिद्र ब्राह्मण को दे दिये जाते हैं (देखिए स्मृतिमुक्ताफल, पृ० ५९५-५९६ एवं स्मृतिचन्द्रिका, पृ० १७६)।
स्मृतियों एवं पुराणों (यथा-कूर्मपुराण, उत्तरार्ध २३।७०) के मत से अंजलि से जल देने के उपरान्त पके हए चावल या जो का पिण्ड तिलों के साथ दर्भ पर दिया जाता है। इस विषय में दो मत हैं। याज्ञ० (३।१६) के मत से पिण्डपितयज्ञ की व्यवस्था के अनसार तीन दिनों तक एक-एक पिण्ड दिया जाता है (इसमें जनेऊ दाहिने कंधे पर या अपसव्य रखा जाता है); विष्णु० (१९।१३) के मत से अशौच के दिनों में प्रति दिन एक पिण्ड दिया जाता है। यदि मृत व्यक्ति का उपनयन हुआ है तो पिण्ड दर्भ पर दिया जाता है, किन्तु मन्त्र नहीं पढ़ा जाता, या पिण्ड पत्थर पर भी दिया जाता है। जल तो प्रत्येक सपिण्ड या अन्य कोई भी दे सकता है, किन्तु पिण्ड पुत्र (यदि कई पुत्र हों तो ज्येष्ठ पुत्र, यदि वह दोषरहित हो) देता है; पुत्रहीनता पर भाई या भतीजा देता है और उनके अभाव में माता के सपिण्ड, यथा मामा या ममेरा भाई आदि देते हैं। वैसी स्थिति में भी जब पिण्ड तीन दिनों तक दिये जाते हैं या जब अशौच केवल तीन दिनों का रहता है, शातातप ने पिण्डों की संख्या १०दी है और पारस्कर ने उन्हें निम्न रूप से बाँटा है; प्रथम दिन ३, दूसरे दिन ४ और तीसरे दिन ३। किन्तु दक्ष ने उन्हें निम्न रूप से बाँटा है। प्रथम दिन में एक, दूसरे दिन ४ और तीसरे दिन ५। पारस्कर ने जाति के अनुसार क्रम से १०, १२, १५ एवं ३० पिण्डों की संख्या दी है। वाराणसी सम्प्रदाय के मत से शव-दाह के समय ४, ५ या ६ पिण्ड तथा मिथिला सम्प्रदाय के अनुसार केवल एक पिण्ड दिया जाता है। गृह्यपरिशिष्ट एवं गरुडपुराण के मत से उन सभी को, जिन्होंने मृत्यु के दिन कर्म करना आरम्भ किया है, चाहे वे सगोत्र हों या किसी अन्य गोत्र के हों, दस दिनों तक सभी कर्म करने पड़ते हैं। ऐसी व्यवस्था है कि यदि कोई व्यक्ति कर्म करता आ रहा है और इसी बीच में पुत्र आ उपस्थित हो तो प्रथम व्यक्ति ही १० दिनों तक कर्म करता रहता है, किन्तु ग्यारहवें दिन का कर्म पुत्र या निकट सम्बन्धी (सपिण्ड) करता है। मत्स्यपुराण का कथन है कि मृत के लिए पिण्डदान १२ दिनों तक होना चाहिए, ये पिण्ड मृत के लिए दूसरे लोक में जाने के लिए पाथेय होते हैं और वे उसे सन्तुष्ट करते हैं, मृत १२ दिनों के उपरान्त मृतात्माओं के लोक में चला जाता है, अतः इन दिनों के भीतर वह अपने घर, पुत्रों एवं पत्नी को देखता रहता है।
___ जिस प्रकार एक ही गोत्र के सपिण्डों एवं समानोदकों को जल-तर्पण करना अनिवार्य है उसी प्रकार किसी व्यक्ति को अपने नाना तथा अपने दो अन्य पूर्वपुरुषों एवं आचार्य को उनकी मृत्यु के उपरान्त जल देना अनिवार्य है। व्यक्ति यदि चाहे तो अपने मित्र, अपनी विवाहिता बहिन या पुत्री, अपने मानजे, श्वशुर, पुरोहित को उनकी मत्यु पर जल दे सकता है (पार० गृ० ३।१०; शंख-लिखित, याज्ञ० ३।४)। पारस्करगृह्य (३।१०) ने एक विचित्र रीति की ओर संकेत किया है। जब सपिण्ड लोग स्नान करने के लिए जल में प्रवेश करने को उद्यत होते हैं और
___३६. पुत्राभावे सपिण्डा मातृसपिण्डाः शिष्याश्च वा दधुः। तदभावे ऋत्विगाचायौं । गौ०५० सू० (१५।१३. १४)।
३७. असगोत्रः सगात्रो वा यदि स्त्री यदि वा पुमान् । प्रथमेऽहनि यो दद्यात्स दशाहं समापयेत् ॥ गृह्यपरिशिष्ट (मिता०, याज्ञ० ११२५५ एवं ३।१६; अपरार्क पृ० ८८७; मदनपारिजात, पृ० ४००; हारलता पृ० १७२) । देखिए लम्वाश्वलायन (२०१६) एवं गरुडपुराण (प्रेतखण्ड, ५।१९-२०)।
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