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धर्मशास्त्र का इतिहास मूंगा, नीलम रख देना चाहिए। इसके उपरान्त उसे ऋ० (१०।१५) के मन्त्रों ('उदीरताम्'....आदि) के साथ अग्नि में घृत एवं तिल की १०८ आहुतियां डालनी चाहिए। तब उसे अस्थियों को पवित्र जल में डालना चाहिए; ऐसा करने से वह अशुद्ध वस्तु छूने का अपराधी नहीं सिद्ध होता। मलमूत्र-त्याग करते समय या आचमन करते समय उसके हाथों में अस्थियाँ नहीं रहनी चाहिए।
निर्णयसिन्धु (पृ० ५८८) ने इतना और जोड़ दिया है कि जिनका उपनयन-संस्कार नहीं हुआ है, उन लोगों का अस्थिसंचयन नहीं होना चाहिए।
आश्व० गृ० (४१६), सत्या० श्री० (४।६, परिधिकर्म ) आदि ने मृत के अस्थिसंचयन के उपरान्त एक शान्ति नामक कृत्य की व्यवस्था दी है। बौधा पि० स० (२।३।३) एवं विष्ण० (१९१९) ने अशौच के दस दिनों के पश्चात शांति के कृत्य की व्यवस्था दी है (दशरात्रे शौचं कृत्वा शान्तिः)। आश्व० गु. में इसका वर्णन यों है-जिसके गुरु (पिता या माता) मर गये हों उसे अमावस्या के दिन शुद्धीकरण कृत्य करना चाहिए। सूर्योदय के पूर्व ही उसे अग्नि की राख एवं उसके आधार के साथ ऋ० (१०।१६।९) के मन्त्र के अाँश का पाठ करके दक्षिण दिशा में जाना चाहिए। चौराहे या किसी अन्य स्थान पर उसे (अग्नि को) फेंककर, उसकी ओर शरीर का वाम भाग करके और बायें हाथ से बायीं जाँघ को ठोकते हुए उसकी तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए। बिना पीछे घूमे घर लौट आना चाहिए, जल में स्नान करना चाहिए, केश, दाढ़ी एवं नख कटाने चाहिए, नया घड़ा, पाक एवं मुख धोने के लिए नये पात्र रखने चाहिए तया शमी के पुष्पों की मालाएँ, शमी की लकड़ियों की समिधा, अग्नि उत्पन्न करने के लिए शमी की लकड़ी के दो टकड़े, अग्नि को एकत्र करने के लिए टहनियाँ, बैल का गोबर एवं चर्म, ताजा मक्खन, एक पत्थर तथा घर में जितनी स्त्रियाँ हों उतनी शाखाएँ रख लेनी चाहिए। अपराह्न में अग्निहोत्र के समय कर्ताओं को ऋ० (१०।१६।९) के अर्थाश के साथ अरणि से अग्नि उत्पन्न करनी चाहिए। इस प्रकार अग्नि जलाकर कर्ता को रात्रि की मूकता की प्राप्ति के समय तक बैठे रहना चाहिए और (कुल के) बूढ़े लोगों की कहानियाँ, शुभ बातों से भरी गाथाएँ, इतिहास एवं पुराण कहते रहना चाहिए। जब चारों ओर सन्नाटा छा जाता है अथवा जब अन्य लोग अपने-अपने विश्राम-स्थल को चले जाते हैं तो कर्ता को द्वार के दक्षिण भाग से लगातार जलधारा गिराते रहना चाहिए एवं ऋ० (१०५३।६) का पाठ करते हुए घर की परिक्रमा कर द्वार के उत्तर भाग में जाकर रुक जाना चाहिए। इसके उपरान्त अग्नि को रखने के पश्चात् और उसके पश्चिम में बैल के चर्म को रखकर घर के लोगों को (स्त्रियों को भी) उस पर ऋ० (१०।१८।६) मन्त्र के साथ चलने को कहना चाहिए। उसे अग्नि के चारों ओर लकड़ियाँ रख देनी चाहिए और ऋ० (१०।१८१४) का पाठ करना चाहिए। तब वह अग्नि के उत्तर पत्थर रखता हुआ ऋ० (१०।१८।४) का अन्तिम पाद कहता है ('वह उनके एवं मृत्यु के बीच में पर्वत रखे') और ऋ० (१०।१८।१-४) के चार मन्त्रों को कहकर वह ऋ० (१०।१८१५) के मन्त्र के साथ अपने लोगों की ओर देखता है। घर की स्त्रियाँ अपने पृथक्-पृथक् हाथों के अंगूठों एवं चौथी अँगुली (अनामिका) से एक ही साथ दर्भाकुरों से अपनी आँखों में ताजा मक्खन लगाती हैं और दांकुरों को फेंक देती हैं। जब तक स्त्रियाँ आँखों में मक्खन का अंजन लगाती रहें कर्ता को उनकी ओर देखते रहना चाहिए और ऋ० (१०।१८७) का पाठ करना चाहिए-'ये स्त्रियाँ विधवा नहीं हैं और अच्छे पतियों वाली हैं।' उसे पत्थर का स्पर्श करना चाहिए (ऋ० १०५३।८ 'पत्थर वाली नदियां बहती हैं), इसके उपरान्त उत्तर-पूर्व में खड़े होकर जब कि अन्य लोग अग्नि एवं बैल के गोबर की परिक्रमा करते हैं, उसे ऋ० (१०।९।१-३ एवं १०।१५५।५) का पाठ करते हुए जलधारा गिरानी चाहिए। एक पीले रंग के बैल को चारों ओर घुमाना चाहिए। इसके उपरान्त सभी लोग नवीन किन्तु बिना घुले हुए वस्त्र पहनकर किसी इच्छित स्थान पर बैठ जाते हैं और बिना सोये सूर्योदय तक बैठे रहते हैं। सूर्योदय के उपरान्त सूर्य के लिए प्रणीत एवं अन्य शुभ मन्त्रों का पाठ करके, भोजन बनाकर, मन्त्रों (ऋ० ११९७१-८) के साथ
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