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धर्मशास्त्र का इतिहास दिन तक अस्थियां एकत्र कर लेने को कहा है और पुनः (८८) कहा है कि चारों वर्गों में संचयन क्रम से चौथे, पाँचवें, सातवें एवं नवें दिन होना चाहिए। आश्व० गृ० (४।५।१) के मत से शवदाह के उपरान्त दसवें दिन (कृष्ण पक्ष में) संचयन होना चाहिए, किन्तु विषम तिथियों (प्रथमा, तृतीया, एकादशी, त्रयोदशी एवं अमावस्या के दिन) में तथा उस नक्षत्र में, जिसका नाम दो या दो से अधिक नक्षत्रों के साथ प्रयुक्त नहीं होता है (अर्थात् दो आषाढ़ाओं, दो फाल्गुनियों एवं दो भाद्रपदाओं को छोड़कर) । विष्णु० (१९।१०), वैखा० स्मार्त० (५।७), कूर्मपुराण (उत्तर, २३), कोशिकसूत्र (८२।२९), विष्णुपुराण (३।१३।१४) आदि ने कहा है कि संचयन दाह के चौथे दिन अवश्य होना चाहिए। विस्तार के विषय में भी मतैक्य नहीं है। आश्व० गृह्य ० (४५) में निम्न बातें पायी जाती हैं; पुरुष की अस्थियाँ
अचिह्नित पात्र (ऐसे पात्र जिसमें कहीं गंड या शोथ आदि न उभरा हो) में एकत्र करनी चाहिए और स्त्री की अस्थियाँ गण्डयुक्त पात्र में । विषम संख्या में बूढ़ों द्वारा (इसमें स्त्रियाँ नहीं रहती) अस्थियाँ एकत्र की जाती हैं। कर्ता चितास्थल की परिक्रमा अपने वामांग को उस ओर करके तीन बार करता है और उस पर जलयुक्त दूध शमी की टहनी से छिड़कता है और ऋ० (१०।१६।१४) के 'शीतिके' का पाठ करता है। अंगूठे और अनामिका अँगुली से अस्थियाँ उठाकर एकएक संख्या में पात्र में बिना स्वर उत्पन्न किये रखी जाती हैं, सर्वप्रथम पाँव की अस्थियाँ उठायी जाती हैं और अन्त में सिर की। अस्थियों को भली भाँति एकत्र करके और उन्हें पछोड़नेवाले पात्र से स्वच्छ करके एवं पात्र में एकत्र करके ऐसे स्थान में रखा जाता है जहाँ चारों ओर पानी आकर एकत्र नहीं होता और 'उपसर्प' (ऋ० १०।१८।१०) का पाठ किया जाता है, इसके उपरान्त चिता के गड्ढे में मिट्टी भर दी जाती है और ऋ० (१०।१८।११) का मन्त्रोच्चारण किया जाता है, फिर ऋ० (१०।१८।१२) का पाठ किया जाता है। अस्थि-पात्र को ढक्कन से बन्द करते समय (ऋ० १०।१८।१३) का पाठ (उत ते स्तम्निम) किया जाता है। इसके उपरान्त बिना पीछे घमे घर लौट आया जाता है, स्नान किया जाता है और कर्ता द्वारा अकेले मृत के लिए श्राद्ध किया जाता है। कौशिकसूत्र (८२।२९-३२) ने अस्थिसंचयन की विधि कुछ दूसरे ही प्रकार से दी है।
- अन्य सूत्रों ने कतिपय भिन्न बातें दी हैं, जिन्हें हम यहाँ नहीं दे रहे हैं। दो-एक बातें ये हैं-सत्याषाढश्री० का कथन है कि टहनी उदुम्बर पेड़ की होनी चाहिए, अस्थियाँ मत के घर की स्त्रियाँ (पत्नी आदि) विषम संख्या (५ या अधिक) में एकत्र करती हैं, उनके अभाव में अन्य घरों की स्त्रियाँ ऐसा करती हैं। वह स्त्री, जिसे अब बच्चा न उत्पन्न होनेवाला हो, अपने बायें हाथ में गीले एवं लाल रंग के दो धागों से बृहती फल बाँधती है, वह बायें पैर को पत्थर पर रखती है और सर्वप्रथम दाँतों या सिर की अस्थियाँ 'उत्तिष्ठत' (तै० आ० ६।४।२) उच्चारण के साथ एकत्र करती है और उसे किसी पात्र या वस्त्र में रखती है, दूसरी स्त्री (उसी प्रकार की) कंधों या बाहओं की अस्थियाँ चुनती है, तीसरी पाश्वों की या कटि की अस्थियाँ, चौथी जाँघों या पैरों की तथा पाँचवीं पांवों की अस्थियाँ चुनती है। वे या अन्य स्त्रियाँ सभी अस्थियाँ चुन लेती हैं। अस्थि-पात्र शमी या पलाश वृक्ष की जड़ में रखा जाता है।
आजकल, विशेषतः कसबों एवं ग्रामों में शवदाह के तुरत उपरान्त ही अस्थियाँ संचित कर ली जाती हैं। अन्त्येष्टिपद्धति उपर्युक्त आश्व० गृह्य की विधि का अनुसरण करती है। इसका कथन है-कर्ता चितास्थल को जाता है, आचमन करता है, काल एवं स्थान का नाम लेता है और मृत का नाम और गोत्र बोलकर संकल्प करता है कि वह अस्थिसंचयन करेगा। अपने वामांग को चितास्थल की ओर करके उसकी तीन बार परिक्रमा करता है, उसे शमी की टहनी से बुहारता है और उस पर 'शीतिके' (ऋ० १०।१६।१४) के साथ दूधमिश्रित जल छिड़कता है। इसके उपरान्त कर्ता के साथ विषम संख्या में बढ़े लोग अस्थिसंचयन करते हैं और अस्थियों को एक नये पात्र में रखते हैं, किन्तु यदि अस्थियाँ किसी मृत स्त्री की हैं तो उन्हें ऐसे पात्र में रखा जाता है जिसमें गंड या शोथ के चिह्न पड़े रहते हैं। अस्थियों को शूर्प (सूप) से हवा करके स्वच्छ कर दिया जाता है और छोटी-छोटी अस्थियाँ भी चुनकर पात्र में रख दी
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