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भस्म या अस्थियों का निधान अथवा जल-प्रवाह
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जाती हैं तथा भस्म गंगा में बहा दी जाती है। इसके उपरान्त वर्षाऋतु के अतिरिक्त किसी अन्य काल में एक ऐसे पवित्र स्थान पर जहाँ जल एकत्र नहीं होता, एक गड्ढा खोदा जाता है और कर्ता उसमें ऋ० (१०।१८।१२) के मंत्र के साथ पात्र को गाड़ देता है । कर्ता ऋ० (१०।१८ ११ ) के साथ गड्ढे में पात्र के चारों ओर मिट्टी फेंकता है और हाथ जोड़कर ऋ० (१०।१८।१२) का पाठ करता है तथा पात्र के मुख पर एक मिट्टी का नया ढक्कन ऋ० ( १०/१८।१३) मंत्रोच्चारण के साथ रख देता है। इसके उपरान्त पात्र को इस प्रकार भली भाँति ढँक देता है कि कोई देख नसके और बिना पीछे घूमे कहीं अन्यत्र चला जाता है और स्नान करता है । निर्णयसिन्धु ( पृ० ५८६ ) ने स्पष्ट कहा है कि अस्थिसंचयन की विधि अपने सूत्र अथवा भट्ट ( कमलाकर के पितामह नारायण भट्ट) के ग्रंथ से प्राप्त करनी चाहिए।
विष्णुधर्मसूत्र (१९।११-१२) एवं अनुशासनपर्व ( २६।३२) का कथन है कि संचित अस्थियाँ गंगा में बहा देनी चाहिए, क्योंकि जितने दिन अस्थियां गंगा में रहेंगी, उतने सहस्र वर्ष मृत व्यक्ति स्वर्ग में रहेगा। पुराणों में ऐसा आया है कि कोई सदाचारी पुत्र, भाई या दौहित्र ( लड़की का पुत्र) या पिता या माता के कुल का कोई सम्बन्धी गंगा में अस्थियों को डाल सकता है, जो इस प्रकार सम्बन्धित नहीं है उसे अस्थियों का गंगा-प्रवाह नहीं करना चाहिए, यदि वह ऐसा करता है तो उसे चान्द्रायण प्रायश्चित्त करना चाहिए। आजकल भी बहुत-से हिन्दू अपने माता-पिता या अन्य सम्बन्धियों की अस्थियाँ प्रयाग में जाकर गंगा में या किसी पवित्र नदी में डालते हैं या समुद्र में बहा देते हैं। " निर्णयसिन्धु ने शौनक का उद्धरण देकर गंगा के अस्थि विसर्जन पर विस्तार से चर्चा की है, जो संक्षेप में यों है— कर्ता को ग्राम
वाहर जाकर स्नान करना चाहिए और गायत्री तथा उन मन्त्रों का, जो सामान्यतः पंचगव्य में कहे जाते हैं, उच्चारण करके अस्थि-स्थल पर मिट्टी छिड़कनी चाहिए। ऋग्वेद के चार मन्त्रों (१०।१८।१०-१३) के साथ उसे क्रम से पृथिवी
प्रार्थना करनी चाहिए, उसे खोदना चाहिए, मिट्टी निकालनी चाहिए और अस्थियों को बाहर करना चाहिए। इसके उपरान्त स्नान करके उसे ऋ० ( ८/९५/७ ९ ) के मन्त्रों के पाठ ( इतो न्विन्द्र स्तवाम शुद्धम् आदि) के साथ अस्थियों star-बार छूना चाहिए। तब उन्हें पंचगव्य से स्नान कराकर शुद्ध करना चाहिए। इसके उपरान्त उसे ( पवित्र अग्नियों की) भस्म, मिट्टी, मधु, कुशपूर्ण जल, गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत एवं जल से दस बार स्नान कराना चाहिए । तब उसे ऋ० ( ११२२/१६; ८।२५।७-९; ७।५६।१२-१४; १०।१२६।१-८; १०।१९।१-१३; ९।१।१।१०; १०।१२८।१-९, १।४३।१ ९ ) के उच्चारण के साथ अस्थियों पर कुश से जल छिड़कना चाहिए; " इसके उपरान्त उसे मृत के लिए हिरण्य-श्राद्ध करना चाहिए, उसे पिण्ड देना चाहिए और तिल से तर्पण करना चाहिए। इसके उपरान्त उसे अस्थियों को निम्न सात प्रकार से ढँकना चाहिए; मृगचर्म, कम्बल, दर्भ, गाय के बालों, सन से बने वस्त्र, भूर्जं (भोज) के पत्रों एवं ताड़ के पत्तों से । अस्थियों की शुद्धि के लिए उसे उनमें सोने, चाँदी के टुकड़े, मोती,
४७. स्मृतिचन्द्रिका (आशौच, पृ० १९० ) ने इस विषय में कतिपय स्मृति-वचन उद्धृत किये हैं; तत्र शाण्डिल्यः -- द्वारवत्यां सेतुबन्धे गोदावर्यां च पुष्करे । अस्थीनि विसृजेद्यस्य स मृतो मुक्तिमाप्नुयात् ॥ शंखलिखितौ-गंगायां च प्रय गे च केदारे पुष्करोत्तमे । अस्थीनि विधिवत् त्यक्त्वा गयायां पिण्डदो भवेत् ॥ पित्रोर्ऋणात्प्रमुच्येत तो नित्यं मोक्षगामिनी ॥ इति । योगयाज्ञवल्क्यः -- गंगायां यमुनायां वा कावेर्यां वा शतद्रुतौ । सरस्वत्यां विशेषेण ह्यस्थीनि विसृजेत्सुतः ॥
४८. यह अवलोकनीय है कि ऋ० (८।२५।७-९) में 'शुद्ध' शब्द तेरह बार आया है अतः यह उचित ही है कि शुद्धीकरण में इन मन्त्रों का पाट किया जाय। इसी प्रकार ऋ० (७१५६।१२) में 'शुचि' शब्द छः बार आया है।
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