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धर्मशास्त्र का इतिहास तब वह पुनः अग्निहोत्र आरम्भ कर सकता है। कुछ सूत्रों ने ऐसी व्यवस्था दी है कि यदि आहिताग्नि की पत्नी उससे पूर्व ही मर जाय तो वह चाहे तो उसे श्रौताग्नियों द्वारा जला सकता है या गोबर से ज्वलित अग्नि या तीन थालियों में रखे, शीघ्र ही जलनेवाले घास-फस से उत्पन्न अग्नि द्वारा जला सकता है। मनु (५।१६७-१६८) का कथन है कि यदि आहिताग्नि द्विज की सवर्ण एवं सदाचारिणी पत्नी मर जाय तो आहिताग्नि पति अपनी श्रौत एवं स्मार्त अग्नियों से उसे यज्ञपात्रों के साथ जला सकता है। इसके उपरान्त वह पुनः विवाह कर अग्निहोत्र आरम्भ कर सकता है। इस विषय में और देखिए याज्ञ० (११८९), बौधा० पि० सू० (२।४ एवं ६), गोभिल-स्मृति (३।५), वैखानसस्मार्तसूत्र (७।२), वृद्ध हारीत (११।२१३), लघु आश्व० (२०५९)। विश्वरूप (याज्ञ० ११८७) ने इस विषय में काठक-श्रुति को उद्धृत कर कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी की मृत्यु के उपरान्त भी वे ही पुरानी श्रौताग्नियाँ रखता है तो वे अग्नियाँ उस अग्नि के समान अपवित्र मानी जाती हैं जो शव के लिए प्रयुक्त होती है, और उसने इतना और जोड़ दिया है कि यदि आहिताग्नि की क्षत्रिय पत्नी उसके पूर्व मर जाय तो उसका दाह भी श्रौताग्नियों से ही होता है। यह सिद्धान्त अन्य टीकाकारों के मत का विरोधी है, किन्तु उसने मनु (५।१६७) में प्रयुक्त 'सवर्ण' को केवल उदाहरणस्वरूप लिया है, क्योंकि ऐसा न करने से वाक्यभेद दोष उत्पन्न हो जायगा। अतः ब्राह्मण-पत्नी के अतिरिक्त क्षत्रियपत्नी को भी मान्यता दी गयी है। कुछ स्मृतियों ने ऐसा लिखा है कि आहिताग्नि विधुर रूप में रहकर भी अपना अग्निहोत्र सम्पादित कर सकता है, और पत्नी की सोने या कुश की प्रतिमा बनाकर यज्ञादि कर सकता है, जैसा कि राम ने किया था। देखिए गोभिलस्मृति (३।९-१०) एवं वृद्ध-हारीत (११।२१४) । जब गृहस्थ अपनी मृत पत्नी को श्रौताग्नियों के साथ जलाने के उपरान्त पुनः विवाह नहीं करता है और न पुनः नवीन वैदिक (श्रौत) अग्नियाँ रखता है तो वह मरने के उपरान्त साधारण अग्नियों से ही जलाया जाता है। यदि गृहस्थ पुनः विवाह नहीं कर सकता तो वह अपनी मृत पत्नी के शव को अरणियों से उत्पन्न अग्नि में जला सकता है और अपनी वैदिक अग्नियों को सुरक्षित रखकर पत्नी की प्रतिमा के साथ अग्निहोत्र का सम्पादन कर सकता है। यदि आहिताग्नि पहले मर जाय तो उसकी विधवा अरणियों से उत्पन्न अग्नि (निर्मन्थ्य) से जलायी जाती है। देखिए बौघा० पि० सू० (४।६-८), कात्या० श्री० (२९।४।३४३५) एवं त्रिकाण्डमण्डन (२।१२१) । जब पत्नी का दाहकर्म होता है तो 'अस्मात्त्वमभिजातोसि' नामक मन्त्र का पाठ नहीं होता (गोभिल० ३।५२)। केवल सदाचारिणी एवं पतिव्रता स्त्री का दाहकर्म श्रौत या स्मार्त अग्नि से होता है (वही ३५३)। ऋतु (शुद्धिप्रकाश, पृ० १६६) एवं बौधा० पि० सू० (३।१।९-१३) के अनुसार विधुर एवं विधवा का दाहकर्म कपाल नामक अग्नि (कपाल को तपाकर कण्डों से उत्पादित अग्नि) से, ब्रह्मचारी एवं यति (साधु) का उत्तपन (या कपालज) नामक अग्नि से, कुमारी कन्या तथा उपनयनरहित लड़के का भूसा से उत्पन्न अग्नि से होता है। यदि आहिताग्नि पतित हो जाय या किसी प्रकार से आत्महत्या कर ले या पशुओं या सौ से भिड़कर मर जाय तो उसकी श्रौताग्नियाँ जल में फेंक देनी चाहिए, स्मार्त अग्नियाँ चौराहे या जल में फेंक देनी चाहिए, यज्ञपात्रों को जला डालना चाहिए (परा० मा० ११२, पृ० २२६; पराशर ५।१०-११; वैखानसस्मार्त० ५।११) और उसे साधारण (लौकिक) अग्नि से जलाना चाहिए।
मनु (५।६८), याज्ञ० (३१), पराशर (३।१४), विष्णु० (२२।२७-२८), ब्रह्मपुराण (परा० मा० ११२, पृ० २३८) के मत से गर्भ से पतित बच्चे, भ्रूण, मृतोत्पन्न शिशु तथा दन्तहीन शिशु को वस्त्र से ढंककर गाड़ देना चाहिए। छोटी अवस्था के बच्चों को नहीं जलाना चाहिए, किन्तु इस विषय में प्राचीन स्मृतियों में अवस्था सम्बन्धी विभेद पाया जाता है। पारस्करगृह्य० (३।१०), याज्ञ० (३।१), मनु (५।६८-६.), यम आदि ने व्यवस्था दी है कि वर्ष के भीतर के बच्चों को ग्राम के बाहर श्मशान से दूर किसी स्वच्छ स्थान पर गाड़ देना चाहिए; ऐसे बच्चों के शवों पर घृत का लेप करना चाहिए, उन पर चन्दन-लेप, पुष्प आदि रखने चाहिए, न तो उन्हें जलाना चाहिए और न जल
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