________________
पितरों के सम्बन्ध में वैदिक प्रार्थना
१११७
मर जाता है; उनके लिए अन्त्येष्टि-कृत्य भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। एक ही विषय की कृत्य-विधियों में श्रौतसूत्र एवं गृह्मसूत्र विभिन्न बातें कहते हैं और आगे चलकर मध्य एवं पश्चात्कालीन युगों में विधियाँ और भी विस्तृत होती चली गयी हैं। हम विधि-विस्तारों की चर्चा यहाँ स्थानाभाव से नहीं कर सकेंगे, क्योंकि ऐसा करने के लिए एक पृथक् ग्रन्थ-लेखन की आवश्यकता पड़ जायगी। हम केवल संक्षेप में विभिन्न सूत्रों, स्मृतियों एवं निबन्धों में वर्णित विधि का कालानुसार उल्लेख करेंगे। निर्णयसिन्धु (पृ० ५६९) ने स्पष्ट कहा है कि अन्त्येष्टि प्रत्येक शाखा में भिन्न रूप से उल्लिखित है, किन्तु कुछ बातें सभी शाखाओं में एक-सी हैं।५ अन्त्य-कर्मों के विस्तार, अभाव एवं उपस्थिति के आधार पर सूत्रों, स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों के काल-क्रम-सम्बन्धी निष्कर्ष निकाले गये हैं (जैसा कि डा० कैलैण्ड ने किया है), किन्तु ये निष्कर्ष बहुधा अनुमाना एवं वैयक्तिक भावनाओं पर ही आधारित हैं। हम उन पर निर्भर नहीं रह सकते।
श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्रों एवं पश्चात्कालीन ग्रन्थों में उल्लिखित अन्त्य कर्मों को उपस्थित करने के पूर्व हम ऋग्वेद के पांच सूक्तों (१०।१४-१८) का अनुवाद उपस्थित करेंगे। इन सूक्तों की ऋचाएँ (मन्त्र) बहुधा सभी सूत्रों द्वारा प्रयुक्त हुई हैं और उनका प्रयोग आज भी अन्त्येष्टि के समय होता है और उनमें अधिकांश वैदिक संहिताओं में भी पायी जाती हैं। भारतीय एवं पाश्चात्य टीकाकारों ने इन मन्त्रों की टीका एवं व्याख्या विभिन्न प्रकार से की है। हम इन विभिन्न टीकाओं एवं आलोचनाओं का उल्लेख यहाँ नहीं करेंगे।
ऋग्वेद (१०।१४)-(१) “(यजमान ! ) उस यम की पूजा करो, जो (पितरों का) राजा है, विवस्वान् का पुत्र है, (मृत) पुरुषों को एकत्र करनेवाला है, जिसने (शुभ कर्म करनेवाले) बहुतों के लिए मार्ग खोज डाला है और जिसने महान् (अपार्थिव) ऊँचाइयाँ पार कर ली हैं। (२) हम लोगों के मार्ग का ज्ञान सर्वप्रथम यम को हुआ; वह ऐसा चरागाह (निवास) है जिसे कोई नहीं छीन सकता, वह वही निवास-स्थान है जहाँ हमारे प्राचीन पूर्वज अपनेअपने मार्ग को जानते हुए गये। (३) मातलि (इन्द्र के सारथि या स्वयं इन्द्र) 'काव्य' नामक (पितरों) के साथ, यम अंगिरसों के साथ एवं बृहस्पति ऋक्वनों के साथ समृद्धिशाली होते हैं (शक्ति में वृद्धि पाते हैं); जिन्हें (अर्थात् पितरों को) देवगण आश्रय देते हैं और जो देवगण को आश्रय देते हैं; उनमें कुछ लोग (देवगण, इन्द्र तथा अन्य) स्वाहा से प्रसन्न होते हैं और अन्य लोग (पितर) स्वधा से प्रसन्न होते हैं। (४) हे यम ! अंगिरस् नामक पितरों के साथ
१५. प्रतिशाखं भिन्नप्यन्त्यकर्मणि साधारणं किंचिदुच्यते। निर्णय० (पृ० ५६९)।
१६. श्री बेर्टम एस० पकिल (Bertrum S. Puckle) ने अपनी पुस्तक 'फ्यूनरल कस्टम्स' (Funeral Customs : London १९२६) में अन्त्य कर्मों आदि के विषय में बड़ी मनोरंजक बातें दी हैं। उन्होंने इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि यूरोपीय देशों, यहूदियों तथा विश्व के अन्य भागों के अन्त्य कर्मों के विषय में विस्तार के साथ वर्णन किया है। उनके द्वारा उपस्थापित वर्णन प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय विश्वासों एवं आचारों से बहुत मेल खाते हैं, यथा--जहाँ व्यक्ति रोगग्रस्त पड़ा रहता है वहां काक (काले कौआ) या काले पंख वाले पक्षी का उड़ते हुए बैठ जाना मृत्यु की सूचना है (पृ० १७), कन में गाड़ने के पूर्व शव को स्नान कराना या उस पर लेप करना (पृ० ३४ एवं ३६), मृत व्यक्ति के लिए रोने एवं शोक प्रकट करने के लिए पेशेवर स्त्रियों को भाड़े पर बुलाना (पृ० ६७), रात्रि में शव को म गाड़ना (पृ.० ७७), सूतक के कारण क्षौरकर्म करना (पृ० ९१), मृत के लिए कन पर मांस एवं मद्य रखना (पृ. ९९-१००), कब्रगाह में बपतिस्मा-रहित बच्चों, आत्महन्ताओं, पागलों एवं जातिच्युतों को न गाड़ने देना (पृ०१४३)।
१७. काव्य, अंगिरस् एवं ऋक्वन् लोग पितरों को विभिन्न कोटियों के द्योतक हैं। ऋग्वेद (७।१०।४) में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org