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पितरों के सम्बन्ध में बंदिक प्रार्थना विस्तार से दी हुई है। सरस्वती की स्तुति वाले मन्त्र (७-९) अथर्ववेद (१८३१४१-४३) में भी पाये जाते हैं
और कौशिकसूत्र (८१-३९) में उन्हें अथर्ववेद (७.६८।१-२ एवं १८।३।२५) के साथ अन्त्येष्टि-कृत्य के लिए प्रयुक्त किया गया है।
(३) “सर्वविज्ञ पूषा, जो पशुओं को नष्ट नहीं होने देता और विश्व की रक्षा करता है, तुम्हें इस लोक से (दूसरे लोक में) भेजे ! वह तुम्हें इन पितरों के अधीन कर दे और अग्नि तुम्हें जाननेवाले देवों के अधीन कर दे ! (४) वह पूषा जो इस विश्व का जीवन है, जो स्वयं जीवन है, तुम्हारी रक्षा करे। वे लोग जो तुमसे आगे गये हैं (स्वर्ग के) मार्ग में तुम्हारी रक्षा करें। सविता देव तुम्हें वहाँ प्रतिष्ठापित करे जहाँ सुन्दर कर्म करनेवाले जाकर निवास करते हैं। (५) पूषा इन सभी दिशाओं को कम से जानता है। वह हमें उस मार्ग से ले चले जो भय से रहित है। वह समृद्धिदाता है, प्रकाशमान है, उसके साथ सभी शूर-वीर हैं; वह विज्ञ हमारे आगे बिना किसी त्रुटि के बढ़े। (६) पूषा (पितृलोक में जानेवाले) मार्गों के सम्मुख स्थित है, वह स्वर्ग को जानेवाले मार्गों और पृथिवी के मार्गों पर खड़ा है। हमको प्रिय लगनेवाला वह दोनों लोकों के सम्मुख खड़ा है और वह विज्ञ दोनों लोकों में आता-जाता रहता है।"
ऋग्वेद (१०।१८)--(१) "हे मृत्यु ! उस मार्ग की ओर हो जाओ, जो तुम्हारा है और देवयान से पृथक है। मैं तुम्हें, जो आँखों एवं कानों से युक्त हो, सम्बोधित करता हूँ। हमारी सन्तानों को पीड़ा न दो, हमारे वीर पुत्रों को हानि न पहुँचाओ। (२) हे यज्ञ करनेवाले (याज्ञिक) हमारे सम्बन्धीगण ! क्योंकि तुम मृत्यु के पद-चिह्नों को मिटाते हुए आये हों और अपने लिए दीर्घ जीवन प्रतिष्ठापित कर चुके हो तथा समृद्धि एवं सन्तानों से युक्त हो, तुम पवित्र एवं शुद्ध बनो! (३) ये जीवित (सम्बन्धी) मृत से पृथक् हो पीछे घूम गये हैं; आज के दिन देवों के प्रति हमारा आह्वान कल्याणकारी हो गया। तब हम नाचने के लिए, (बच्चों के साथ) हँसने के लिए और अपने दीर्घ जीवन को दढ़ता से स्थापित करते हुए आगे गये। (४) मैं जीवित (सम्बन्धियों, पुत्र आदि) की (रक्षा) के लिए यह बाधा (अवरोध) रख रहा हूँ, जिससे कि अन्य लोग (इस मृत व्यक्ति के) लक्ष्य को न पहुँचें। वे सौ शरदों तक जीवित रहें। वे इस पर्वत (पत्थर) के द्वारा मत्य को दूर रखें! (५) हे धाता! बचे हुए लोगों को उसी प्रकार सँभाल रखो जिस प्रकार दिन के उपरान्त दिन एक-एक क्रम में आते रहते हैं, जिस प्रकार अनुक्रम से ऋतुएँ आती हैं, जिससे कि छोटे लोग अपने बड़े (सम्बन्धी) को न छोड़ें। (६) हे बचे हुए लोगों, बुढ़ापा स्वीकार कर दीर्घ आयु पाओ, क्रम से जो भी तुम्हारी संख्याएँ हों (वैसा ही प्रयत्न करो कि तुम्हें लम्बी आयु मिले); भद्र जन्म वाला एवं कृपालु त्वष्टा तुम्हें यहाँ (इस विश्व में) दीर्घ जीवन दे ! (७) ये नारियाँ, जिनके पति योग्य एवं जीवित हैं , आँखों में अंजन के समान घृत लगाकर घर में प्रवेश करें। ये पलियाँ प्रथमतः सुसज्जित, अश्रुहीन एवं पीड़ाहीन हो घर में प्रवेश करें। (८) हे (मृत की) पत्नी! तुम अपने को जीवित (पुत्रों एवं अन्य सम्बन्धी) लोगों के लोक की ओर उठाओ; तुम उस (अपने पति) के निकट सोयी हुई हो जो मृत है; आओ! तुम पत्नीत्व के प्रति सत्य रही हो और उस पति के प्रति, जिसने पहले (विवाह के समय) तुम्हारा हाथ पकड़ा था और जिसने तुम्हें भली भाँति प्यार किया, सत्य रही हो। (९) (मैं) मृत (क्षत्रिय) के हाथ से प्रण करता हूँ जिससे कि हममें सैनिक वीरता, दिव्यता एवं शक्ति आये। तुम (मत) वहाँ और हम यहाँ पर शूर पुत्र पायें और यहाँ सभी आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय पायें। (१०) (हे मृत) इस विशाल एवं सुन्दर माता पृथिवी के पास जाओ। यह नयी (पृथिवी), जिसने तुम्हें भेटें दी और तुम्हें मृत्यु की गोद से सुरक्षित रखा, तुम्हारे लिए ऊन के समान मृदु लगे। (११) हे पृथिवी! ऊपर उठ आओ, इसे न दबाओ, इसके लिए सरल पहुँच एवं आश्रय बनो, और इस (हडियो के रूप में मत व्यक्ति) को उसी प्रकार को जिस प्रकार माता अपने आँचल से पुत्र को ढेंकती है। (१२) पृथिवी ऊपर उठे और अटल रहे। सहस्रों स्तम्भ इस घर को सँभाले हुए खड़े रहें। ये
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