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व्यभिचार, व्रत-लोप, आरुट पतित आदि के प्रायश्चित्त छ: दिनों तक बिना भिक्षा या बिना माँगे, तीन दिनों तक जल पर रहना चाहिए तथा एक दिन पूर्ण उपवास करना चाहिए।" आप० ध० सू० (१।१।१।२४-२७) ने वात्यता का एक अन्य प्रायश्चित्त बतलाया है। व्रात्य या पतितसावित्रीक के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय ७ । हरदत्त (आप० घ० सू० १।१।२।१०) के मत से यदि प्रपितामह के पूर्व कई पीढ़ियाँ बिना उपनयन के रही हैं तब भी व्यक्ति को उचित प्रायश्चित्त के उपरान्त हिन्दू धर्म में सम्मिलित किया जा सकता है। किन्तु कुछ ग्रन्थकारों ने आपस्तम्ब एवं पराशर को शाब्दिक अर्थ में ही लिया है और कहा है कि यदि प्रपितामह के पिता से लेकर अब तक उपनयन न हुआ हो तो व्यक्ति के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता।
व्रतलोप (ब्रह्मचारी द्वारा ब्रह्मचर्य-पालन के वत की हानि की स्थिति)-वह वैदिक ब्रह्मचारी जो किसी स्त्री से संभोग कर लेता है उसे अवकोणों कहा जाता है। तैत्तिरीयारण्यक (२०१८) में अवकीर्णी के लिए प्रथम बार
पप द्वारा प्रतिपादित प्रायश्चित्त का उल्लेख है। आप० ध० सू० (१।९।२६।८-९) ने कहा है कि ऐसे विद्यार्थी को पाकयज्ञ की विधि से निति (नरक या मत्यु की देवी) को गदहे की बलि देनी चाहिए और किसी शूद्र द्वारा अवशिष्ट हवि खा डाली जानी चाहिए। जैमिनि (६।८।२२) ने कहा है कि आहतियाँ लौकिक अग्नि में दी जानी चाहिए न कि वैदिक अग्नि में। वसिष्ठ (२३।१-३) ने व्यवस्था दी है--"जब वैदिक विद्यार्थी स्त्री-संग करता है तो उसे बन में किसी चतुष्पथ (चौराहे) पर लौकिक अग्नि जलाकर राक्षसों के लिए गर्दभ (गदहा) की बलि देनी चाहिए, या उसे निऋति को भात की आहुति देनी चाहिए और चार आहुतियां देकर यह कहना चाहिए--"कामपिपासा को स्वाहा; उसको जो उसकी कामलिप्सा का अनुसरण करता है, स्वाहा; निति को स्वाहा; राक्षस देवता को स्वाहा।" यही व्यवस्था गौतम (२३।१७-१९), मनु (११।११८-१२३), बौधा० ध० सू० (२।१।३५-३४), याज्ञ० (३।२८०), अग्निपुराण (१६९।१५-१८) एवं पारस्करगृह्य० (३।१२) में भी पायी जाती है, किन्तु गौतम ने इतना जोड़ दिया है कि उसे मिट्टी के पात्र में सात घरों से वर्ष भर भिक्षा मांगनी चाहिए और अपने दुष्कृत्य का उद्घोष करते रहना चाहिए।
यदि कोई संन्यासी पुनः गृहस्थ हो जाता है तो उसके लिए संवर्त (१७१-१७२) ने छः मासों का कृच्छ्र निर्धारित किया है। ऐसे व्यक्ति की प्रत्यवसित संज्ञा है। यम (२२-२३), बहदयम (३-४) आदि नौ प्रकार दिये हैं, यथा-जो जल, अग्नि, उदबन्धन (जिसके द्वारा वे अपनी हत्या कर डालना चाहते थे) से बच निकले (लौट आये) हैं, वे जो संन्यासाश्रम से लौट आये हैं, या आमरण अनशन (उपवास) से हट गये हैं, जो विष, प्रपात-पात, धर्णा (किसी के घर पर धरना देने) से बच गये हैं (लौट चुके हैं), जो आत्महत्या के हेतु किसी शस्त्र के वार से बच गये हैं। ये संसर्ग के योग्य नहीं होते और इनकी शुद्धि चान्द्रायण या दो तप्त कृच्छों से होती हैं।" वृद्ध-पराशर (परा० मा०, २, भाग २, प०११ एवं प्राय० मुक्ता०) का कथन है कि उन संन्यासियों को जो पुनः गृहस्थ
१६. यस्य प्रपितामहस्य पितुरारभ्य नानुस्मयंत उपनयनं तत्र प्रायश्चित्तं नोक्तम् । धर्मजैलहितव्यम् । एवं ततः पूर्वेष्वपि । हरदत्त (आप०५० सू० १।१।२।१०)।
१७. त्रिपुरुषं पतितसावित्रीकाणामपत्ये संस्कारो नाध्यापनं च। पार० गृ० (२५)। इदं व्याख्यातं हरदसेन भाष्यकृता।...यस्य प्रपितामहस्य पितुरारभ्य नानुस्मर्येत उपनयनं तस्य प्रायश्चित्तं नोक्तमिति । तथा च संस्कार्यस्य त्रिपुरुषोर्ध्वमपि व्रात्यत्वे कथमपि संस्कार्यस्य उपनयनं न भवतीति फलितम् । प्रायश्चित्तमुक्तावली।
१८. जलाग्न्युबन्धनभ्रष्टाः प्रवज्यानाशकच्युताः। विषप्रपतनप्रायशस्त्रघातहताश्च ये॥ नवते प्रत्यवसिताः सर्वलोकबहिष्कृताः । चान्द्रायणेन शुध्यन्ति तप्तकृच्छ्रद्वयेन वा ॥ यम (२२-२३, प्राय० सा० पृ० १२६) ।
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