________________
अध्याय ७ अन्त्येष्टि
मृत्यु के उपरान्त मानव का क्या होता है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जो आदिकाल से ज्यों-का-त्यों चला आया है। यह एक ऐसा रहस्य है जिसका भेदन आज तक सम्भव नहीं हो सका है। आदिकालीन भारतीयों, मिस्रियों, चाल्डियनों, यूनानियों एवं पारसियों के समक्ष यह प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा एवं समस्या के रूप में विद्यमान रहा है। मानव के भविष्य, इस पृथिवी के उपरान्त उसके स्वरूप एवं इस विश्व के अन्त के विषय में भांति-भांति के मत प्रकाशित किये जाते रहे हैं जो महत्त्वपूर्ण एवं मनोरम हैं। प्रत्येक धर्म में इसके विषय में पृथक् दृष्टिकोण रहा है। इस प्रश्न एवं रहस्य को लेकर एक नयी विद्या का निर्माण भी हो चुका है, जिसे अंग्रेजी में 'Eschatology' (इश्चंटॉलॉजी) कहते हैं। यह शब्द यूनानी शब्दों-इश्चैटॉस ( Eschatos=Last ) एवं लोगिया ( Logia= Discourse) से बना है, जिसका तात्पर्य है अन्तिम बातों, यथा-मृत्यु, न्याय (Judgment) एवं मृत्यु के उपरान्त की अवस्था से संबंध रखनेवाला विज्ञान। इसके दो स्वरूप हैं, जिनमें एक का संबंध है मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति की नियति, आत्मा की अमरता, पाप एवं दण्ड तथा स्वर्ग एवं नरक के विषय की चर्चा से, और दूसरे का सम्बन्ध है अखिल ब्रह्माण्ड, उसकी सृष्टि, परिणति एवं उद्धार तथा सभी वस्तुओं के परम अन्त के विषय की चर्चा से। हम इस ग्रंथ के इस प्रकरण में प्रथम स्वरूप का निरूपण करेंगे और दूसरे का विवेचन आगे के प्रकरण में। प्राचीन ग्रन्थों में प्रथम स्वरूप पर ही अधिक बल दिया गया है, किन्तु आजकल वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखनेवाले लोग बहुधा दूसरे स्वरूप पर ही अधिक सोचते हैं।
सामान्यतः मृत्यु विलक्षण एवं भयावह समझी जाती है, यद्यपि कुछ दार्शनिक मनोवृत्ति वाले व्यक्ति इसे मंगलप्रद एवं शरीररूपी बन्दीगृह में बन्दी आत्मा की मुक्ति के रूप में ग्रहण करते रहे हैं। मृत्यु का भय बहुतों को होता है ; किन्तु वह भय ऐसा नहीं है कि उस समय की अर्थात् मरण-काल के समय की सम्भावित पीड़ा से वे आकान्त होते हैं, प्रत्युत उनका भय उस रहस्य से है जो मृत्यु के उपरान्त की घटनाओं से सम्बन्धित है तथा उनका भय उन भावनाओं से है जिनका गंभीर निर्देश जीवनोपरान्त सम्भावित एवं अचिन्त्य परिणामों के उपभोग की ओर है। सी० ई० बुल्लियामी ने अपने ग्रन्थ 'इम्मार्टल मैन' (पृ० २) में कहा है--'यद्यपि (मृत्यूपरान्त या प्रेत) जीवन के संबंध में अत्यन्त कठोर एवं भयानक कल्पनाओं से लेकर अत्यन्त उच्च एवं सुन्दरतम कल्पनाएँ प्रकाशित की गयी हैं, तथापि तात्त्विक बात यही रही है कि शरीर मरता है न कि आत्मा। मृत्यु के विषय में आदिम काल से लेकर सभ्य अवस्था तक के
१. अंग्रेजी शब्द 'स्पिरिट' (Spirit) एवं भारतीय शब्द 'आत्मा' में धार्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से अर्थ-साम्य नहीं है। प्रथम शब्द जीवनोच्छ्वास का द्योतक है और दूसरे को भारतीय दर्शन में परमात्मा की अभिव्यक्ति का रूप दिया गया है। आत्मा अमर है, शरीर नाशवान् । गीता में आया भी है-'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥' और भी-'अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराण: .....।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org