________________
११०८
धर्मशास्त्र का इतिहास
३।१३१) व्यक्ति जन्म लेता है; असत्यभाषी, पिशुन, परुषभाषी एवं असंगत वाचाल पक्षी या पशु के रूप में जन्म लेता है (वही ३॥१३५); पर-द्रव्यग्रहण, पर-दाराभिगमन एवं शास्त्रविरुद्ध प्राणि-हिंसा से व्यक्ति अचल योनि (वृक्ष आदि) के रूप में प्रकट होता है; ब्रह्मघातक पशु (हिरन आदि), कुत्ता, सूकर य ऊँट के रूप में जन्म-ग्रहण करता है; सुरापान करनेवाला गदहा, पुल्कस (निषाद पुरुष एवं शूद्रा स्त्री से उत्पन्न) या वेण (वैदेहक द्वारा अम्बष्ठ स्त्री से उत्पन्न) होता है; सोना चुरानेवाला कीड़ा (चींटी आदि), पतंग के रूप में तथा माता, पुत्री, बहिन आदि से व्यभिचार करनेवाला घास, झाड़-झंखाड़, लता-गुल्मों के रूप में प्रकट होता है (वही, ३।२०७-२०८)। पापियों द्वारा ग्रहण की जानेवाली विभिन्न पशयोनियों का वर्णन ब्रह्मपुराण (२१७१३७-११०) में पाया जाता है। और देखिए गरुडपुराण (प्रेतखण्ड, २।६०-८८) एवं अग्निपुराण (३७१।३०-३२)।
प्राचीन काल में ऐसा विश्वास था कि पापों के कारण ही रोग उत्पन्न होते हैं। ऐसी धारणा केवल भारत में ही नहीं थी; सेण्ट जान के गास्पेल (९।१-३) में ऐसा लिखा है कि जब एक जन्मान्ध व्यक्ति ईसा मसीह के पास पहुंचा तो उसके शिष्यों ने उससे पूछा-'किसने पाप किया, इसने या इसके माता-पिता ने, जिसके कारण यह जन्मान्ध हुआ?' ईसा मसीह ने यह धारणा काट दी और अपने चमत्कार से उस जन्मान्ध को आँखें दे दीं। अथर्ववेद (८७३) में ऐसा आया है कि पाप से उत्पन्न रोगों द्वारा ग्रस्त व्यक्ति के शरीर के प्रत्येक अंग के रोग लता-गल्मों द्वारा काट दिये गये। मन (९।४९-५२), वसिष्ठ (२०४४), याज्ञ० (३।२०९-२११), विष्णु (अ० ४५), शातातप (११३-११ एवं २।१, ३०, ३२ तथा ४७), गौतम (अ० २०, पद्य), गौतम (गद्य, मिता०, याज्ञ० ३।२१६), वृद्ध गौतम (स्मृतिमुक्ताफल, पृ० ८६१), यम (प्राय० मयूख, पृ० ९), शंख (मिता०, याज्ञ० ३१२१६), स्मृत्यर्थसार (पृ० ९९-१००) ने उन रोगों एवं शारीरिक दोषों का वर्णन किया है, जिनसे पापी मनुष्यरूप में जन्म पाने पर ग्रसित होते हैं। चरकसंहिता जैसे वैद्यक ग्रन्थों ने भी ऐसा विश्वास प्रकट किया है कि रोग पूर्वजन्म में किये गये दुष्कर्मों के फल मात्र हैं (देखिए सूत्रस्थान, अध्याय १।११६)।
रोगों अथवा शारीरिक दोषों के, जिनसे विभिन्न कोटियों के पापी ग्रसित होते हैं, विषय में स्मृतियों में पूर्ण मतैक्य नहीं है, यथा जहाँ वसिष्ठ (२४१४४) एवं शंख (मिताक्षरा, याज्ञ० ३।२१६) के मत से ब्रह्मघातक कोढ़ी होता है, वहीं मनु (९।४९), याज्ञ० (३।२०९), विष्णु० (४५६३), अग्नि० (३७१।३२) ने उसे क्षयरोग से पीड़ित होनेवाला कहा है। शंख, हारीत, गौतम, यम एवं पुराणों (मिताक्षरा ३१२१६; परा० मा० २, भाग २, पृ० २३०-२४०, २४२-२७२, मद० पारि०, पृ० ७०१-७०२, महार्णव-कर्मविपाक) ने निम्न कोटि के जीवों की योनियों एवं रोगों तथा विकलांगों के विषय में लम्बी-लम्बी सूचियाँ दी हैं, जिन्हें हम स्थानाभाव से यहाँ नहीं दे
यद्यपि कर्म शब्द सामान्यतः सत् और असत् चेष्टाओं का द्योतक है तथापि प्रायश्चित्तों के विषय में यह शब्द मन में दुष्कर्मों की भावना ही उपस्थित करता है। अतः कर्म-विपाक शब्द का अर्थ दुष्कृत्यों या पापों के फलवान् होने का ही द्योतक है। योगसूत्र (२।१३) के अनुसार कर्मविपाक के तीन स्वरूप हैं; जाति (कीट-पतंगों या पशुओं आदि की योनि), आयु (जीवन अर्थात् पाँच या दस वर्षों का जीवन) एवं भोग (नरकयातनाओं आदि का अनुभव) । कर्मविपाक शब्द याज्ञ० (३।१३१ 'विपाक: कर्मणां प्रेत्य केषांचिदिह जायते') में आया है और पुराणों में तो इसका बहुत प्रयोग हुआ है (ब्रह्मपुराण २२४।४१, २२५।४३ एवं ५९; मत्स्य० १२५।१४ आदि)। प्रायश्चित्तसार (पृ० २१९-२३१) में कर्मविपाक-संबंधी विवेचन सम्भवतः सबसे लम्बा है। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन को कर्मविपाक का सिद्धान्त मली माँति ज्ञात था, क्योंकि उन्होंने अपनी रत्नावली में इसकी ओर निर्देश किया है। और देखिए बौद्ध ग्रंथ अवदानशतक, सुत्तनिपात । मध्यकाल के ग्रंथों (यथा हारीतसंहिता) में भी कर्मविपाक के विषय में लम्बे उल्लेख हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org