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कम-विपाक या पापकर्मानुसार निन्द्य योनियों में जन्म
११०९ विवागसुयम् (विपाकश्रुतम्), जो जैनागम का ग्यारहवां अंग है, बहुत-सी ऐसी गाथाएँ कहता है जिनमें दुष्कृत्यों के कर्मफल घोषित हैं। इस ग्रंथ में सत्कर्मों के फलों का निरूपण भी हुआ है।
मनु (१२।३, ९ एवं ५४) एवं याज्ञ० (३।२०६) के कथनों पर आधारित सिद्धान्त से प्रकट होता है कि केवल मानवों को ही (बाघ आदि निम्न कोटि के पशुओं को नहीं) अपने कर्मों के फल से स्वर्ग एवं नरक भोगने पड़ते हैं। विष्णुधर्मोत्तर पुराण ने इस विषय में स्पष्ट बातें कही हैं (२११०२१४-६; परा० मा० २, माग २, पृ० २०८-२०९; प्राय० सार० पृ. २१५)।
मिता० (याज्ञ० ३।२१६), स्मृत्यर्थसार, परा० मा०, प्राय० सार आदि का कथन है कि कर्म-विवाक-सम्बन्धी निरूपण मात्र अर्यवाद है, इसे यथाश्रुत शब्दिक अर्थ में नहीं लेना चाहिए। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि पापी लोग प्राजापत्य जैसे प्रायश्चित्तों को कर सकें, क्योंकि ऐसे कठिन प्रायश्चित्तों में महान् कष्ट होता है और लोग इच्छापूर्वक उन्हें करने में हिचकते हैं।
कर्मविपाक-सम्बन्धी ग्रन्थों का उपदेश इतना ही है कि प्राणी को तब तक निराश होने की आवश्यकता नहीं है जब तक वह दुष्कृत्यों से उत्पन्न यातनाओं को सहने के लिए सन्नद्ध है और न उसे बहुत-सी योनियों में जन्म लेने के कारण उपस्थित परिस्थिति से भी भयाकुल होना चाहिए। क्योंकि अन्ततोगत्वा उसे अपनी लम्बी यात्रा एवं विकास के फलस्वरूप अपना वास्तविक महत्त्व प्राप्त हो ही जायगा और वह अमर शान्ति एवं पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगा।
मनु (१२।६९), विष्णु (४४।४५) एवं गरुडपुराण (२।२।८९) का कथन है कि वे स्त्रियाँ, जो चोरी करने के कारण पापी ठहरायी गयी हैं, आनेवाले जन्मों में चोरों की पत्नियाँ होती हैं।
वामनपुराण का अध्याय १२ कर्मविपाक है और मार्कण्डेयपुराण ने अपने पन्द्रहवें अध्याय में इसी विषय का निरूपण किया है। वराहपुराण (२०३।२१) ने असंख्य वर्षों तक नरक-यातनाएं भोगने के विषय में सविस्तर लिखा है ओर यह प्रकट किया है कि किस प्रकार पापी अपने दुष्कृत्यों को दूर कर मानव-रूप धारण करते हैं और माँति-भांति के रोगों एवं शारीरिक दोषों से ग्रसित होते हैं।
मान्धाता के 'महार्णव-कर्मविपाक' नामक ग्रंय में आया है कि दुष्कृत्यों के फलों के शमन के दो साधन हैं ; कृच्छ (प्रायश्चित) एवं रोगों के प्रति विपर्यप (व्याधि-विपर्यय अर्थात् उनके विरोध में उचित उपाय)। व्याधि-विपर्यय के लिए किसी वेदिका के मण्डप में सूर्य एवं रोगदेव को सुवर्ण-प्रतिमाओं की पूजा की जाती है। इस ग्रंथ में लिखा है कि आश्वलायन एवं तैत्तिरीय शाखा के अनुसार घोषा-शान्ति के लिए वैदिक मन्त्रों का उच्च स्वर से पाठ किया जाता है; वैदिक मन्त्रों के साथ सूर्यपूजा, नक्षत्र-पूजा, आहुति-दान, रुद्वैकादशिनी, महारुद्र (११, १२) और अतिरुद्र के कृत्य सम्पादित होते हैं और विष्णु के सहस्र नामों का पाठ किया जाता है, विनायकशान्ति (याज्ञ० ११२७१२९४) एवं नवग्रह-यज्ञ किये जाते हैं। इस ग्रंय में यह भी व्यवस्थित किया गया है कि किन-किन दानों से कौन-कौन रोग नष्ट किये जा सकते हैं. यथा कवलोदान (एक पल सोने से कदली का पौवा बनाकर दान करना)। इस ग्रंथ में समी असाध्य रोगों की प्रतिमाओं के दान का वर्णन है (शातातप २।४७-४८ को राजयक्ष्मा नष्ट करने के विषय में उद्धत किया गया है)। इस ग्रंथ में ज्वरों, अन्य रोगों एवं हरी या बिल्ली के समान आँखों, बहरापन आदि शारीरिक दोषों का सविस्तर वर्णन है। स्थानाभाव से हम इस ग्रंथ में दी गयी बातों का वर्णन नहीं करेंगे और ऐसा करना आवश्यक भी नहीं है, क्योंकि आजकल या तो लोग इनमें विश्वास नहीं रखते या इनका सम्पादन बहुत कम होता है।
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