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कर्म विपाक; मानस, वाचिक, कायिक पापों का फल
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के रूप में पुनः जन्म लेना पड़ेगा और मनुष्य रूप में जन्म लेने पर उसे रोगों एवं कुलक्षणों से युक्त होना पड़ेगा। १६ अन्तिम दो फल कर्म विपाक के अन्तर्गत रखे गये हैं । कर्मविपाक का अर्थ है दुष्कर्मों का फलवान् होना । शातातप ( १११-५) ने दृढतापूर्वक कहा है कि महापातकी यदि प्रायश्चित्त नहीं करते हैं तो वे नरकोपभोग के उपरान्त शरीर पर कुछ निन्द्य चिह्न लेकर जन्म-ग्रहण करते हैं। इस प्रकार लक्षणों से युक्त होकर महापातकी सात बार, उपपातकी पाँच बार एवं पापी तीन बार जन्म लेते हैं। पापों के कतिपय चिह्न पश्चात्ताप एवं प्रायश्चित्त से दूर हो सकते हैं। इसी प्रकार वैदिक मन्त्रों के जप, देव पूजा, होम एवं दान द्वारा दुष्कृत्यों से उत्पन्न रोग दूर हो सकते हैं। शातातप (११६१०) ने पापों से उत्पन्न होनेवाले रोगों के नाम दिये हैं, यथा कुष्ठ, क्षय, शुक्रदोष (सूजाक ), संग्रहणी, वृक्ककष्ट, मूत्राशय में पथरी पड़ना, खाँसी का रोग, भगन्दर आदि । व्यक्ति तीन प्रकार से पाप कर सकता है; शरीर से, वाणी
एवं मन से ( मन १२ । ३ ) । वास्तव में मन से ही सारी क्रियाएँ प्रकट होती हैं ( मनु १२।४), किन्तु सुविधा के लिए ही ये तीन प्रकार व्यक्त किये गये हैं। बेईमानी (छल कपट ) से दूसरे के धन को हड़प लेने की क्षुद्र लालसा रखना, दूसरे का अमंगल हो ऐसी इच्छा रखना और असत्य विचारों को मानते जाना (यथा आत्मा नहीं है, शरीर ही आत्मा है आदि ) -- ये तीन मानस पाप हैं ( मनु १२/५ ) । कठोर या परुष वचन, असत्य, पैशुन्य ( चुगलखोरी) एवं असंगत वाचालता--ये चार वाचिक पाप हैं ( मनु १२।६) । बिना सहमति के किसी की सम्पत्ति हथिया लेना, शास्त्र-वचनों के विपरीत चेतन प्राणियों की हिंसा एवं दूसरे की पत्नी से संभोग — ये तीन शारीरिक पाप हैं ( मन १२।७ ) | मनु का कथन है कि शारीरिक पापों से पापी मनुष्य स्थावर योनि ( वृक्ष आदि) में जाता है, वाणी द्वारा किये गये पापों से व्यक्ति पशु-पक्षियों के रूप में जन्म लेता है तथा मानस पापों से चाण्डाल आदि निम्न कोटि की जातियों में जन्म पाता है। हारीत ने नरक में ले जानेवाले १८ दुष्कृत्यों के नाम गिनाये हैं, जिनमें छः मानस हैं, चार वाचिक हैं और शेष कायिक हैं। "
नरक यातनाओं के उपभोग के उपरान्त किन-किन पशुओं, वृक्षों, लता-गुल्मों आदि में जन्म लेना पड़ता है, इसके विषय में देखिए मनु ( १२५४-५९ एवं ६२-६८ ), याज्ञ० ( ३११३१, १३५-१३६, २०७-२०८ एवं २१३२१५), विष्णु धर्मसूत्र (अध्याय ४४) एवं अत्रि ( ४१५ | १४ एवं १७-४४, गद्य में ) । याज्ञवल्क्य स्मृति की बातें संक्षेप में हैं अतः हम उन्हें ही यहाँ लिख रहे हैं-संसार में आत्मा सैकड़ों शरीर धारण करता है, यथा-- मानस, वाचिक एवं कायिक दुष्कृत्यों के कारण किसी निम्न जाति में, पक्षियों में तथा वृक्ष आदि किसी स्थावर वस्तु के रूप में (याज्ञ०
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२६. प्रायश्चित्तविहीनानां महापातकिनां नृणाम् । नरकान्ते भवेज्जन्म चिह्नाङ्कितशरीरिणाम् ॥ प्रतिजन्म भवेतेषां चिह्नं तत्पापसूचकम् । प्रायश्चित्तं कृते याति पश्चात्तापवतां पुनः ॥ महापातकर्ज चिह्नं सप्तजन्मसु जायते । उपपापोद्भवं पञ्च त्रीणि पापसमुद्भवम् ।। दुष्कर्मजा नृणां रोगा यान्ति चोपक्रमैः शमम् । जाप्यैः सुरार्चनैहमद निस्तेषां शमो भवेत् ॥ शातातप (१1१-४) । प्राय० वि० ( पृ० १०६) में आया है - - " पूर्वजन्मकृतयोः सुवर्णापहारसुरापानपापयोर्न र कोपभोगक्षीणयोरपि 'सुवर्णचौरः कौनख्यं सुरापः श्यावदन्तताम्' (मनु ११।४९ ) इत्यनुमितयोः किचित्सावशिष्टत्वादल्पप्रायश्चित्तमाह वसिष्ठः" (२०१६) ।
२७. सर्वाभक्ष्यभक्षणमभोज्य भोजनमपेयपानमगम्यागमनमयाज्ययाजनमसत्प्रतिग्रहणं परदाराभिगमनं द्रव्यापहरणं प्राणिहिंसा चेति शारीराणि । पारुष्यमनृतं विवादः श्रुतिविक्रयश्चेति वाचिकानि । परोपतापनं पराभिद्रोह: क्रोधो लोभो मोहोऽहंकारश्चेति मानसानि । तदेतान्यष्टादश नेरेयाणि कर्माणि । हारीत ( पराशरमाषक्षीय २, भाग २, १०२१२ - २१३) ।
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