________________
प्रायश्चित्तों (व्रतों) का परिचय
१०८७ ३२२=अत्रि १२९-१३०) ने १५ दिनों के व्रत का भी उल्लेख किया है, जिसमें उपर्युक्त पांचों पदार्थ (पिण्याक, आचाम (कान्जी, मात का उफनाव या मांड), तक्र, जल एवं सत्तू) प्रति तीन दिनों पर खाये जाते हैं । यम ने तुलापुरुषकृच्छ को २१ दिनों का प्रायश्चित्त माना है जिसमें पाँच पदार्थ क्रम से तीन-तीन दिनों पर खाये जाते हैं (मिता०, याज्ञ० ३।३२२) । अपरार्क (पृ० १२३९-१२४१), परा० मा० (२, भाग २, प० १८४-१८९), मदनपारिजात (पृ० ७१८-७२७) एवं प्राय० सार (.. १७९-१८१) ने इस प्रायश्चित्त के सम्पादन की विधि का पूरा वर्णन किया है। इसमें उशीर (खस) से बनी कर्ता की दो आकृतियां सोने या चाँदी या चन्दन की बनी तराजू (तुला) के एक पलड़े पर रखी जाती हैं और दूसरे पलड़े पर कंकड़-पत्थर रखे जाते हैं या महादेव एवं अन्य देवों, यथा अग्नि, वायु एवं सूर्य की स्थापना और पूजा की जाती है।
तोयकृच्छ-यम (प्राय० प्रकाश), शंख (प्रायः सार पृ० १८२) ने इसे वरुण-कृच्छ्र भी कहा है। विष्णु (४६।१४) का कथन है कि एक मास तक केवल सत्तू एवं जल मिलाकर पीने से उदककृच्छ सम्पादित होता है। ऋग्वेद (७।४९।३) के काल से ही वरुण जल के देवता कहे जाते रहे हैं, और वे सत्य एव असत्य की परीक्षा करने वाले कहे गये हैं, अतः यह तोयकृच्छ वारुण (वरुण-कृच्छ) भी कहा जाता है। जाबाल (प्राय० प्रकाश) का कथन है--"यदि कोई पापी बिना कुछ खाये एक दिन और एक रात जल में खड़ा रहता है और वरुण को संबोधित मन्त्रों का पाठ करता है तो वह साल भर के पापों को जलकृच्छ द्वारा दूर कर देता है।" याज्ञवल्क्य (प्राय० सार, पृ० १८७) के अनुसार इस प्रायश्चित्त में एक दिन एवं रात खड़े रहकर उपवास किया जाता है, रात में जल में खड़ा रहना होता है और दूसरे दिन गायत्री मन्त्र का १००८ बार जप किया जाता है। शंख (मदनपारिजात, प०७३७) के मत से इस प्रायश्चित्त में या तो जल में उबाले हुए कमलडण्ठल (मृणाल) पर या पानी में मिश्रित सत्तू पर रहना पड़ता है।
दधिकृच्छ-विष्णुधर्मोत्तर (प्राय० प्रकाश) के मत से इस प्रायश्चित्त में एक मास तक केवल दही का प्रयोग होता है।
देवकृच्छ यम (परा० मा० २, भाग २, पृ० १९१-१९२) ने इसका वर्णन यों किया है -"लगातार तीन-तीन दिनों तक केवल यवागू (माँड़), यावक (जौ की लपसी), शाक, दूध, दही एवं घी ग्रहण करना चाहिए
और आगे के तीन दिनों तक पूर्ण उपवास करना चाहिए, यह देवकृत (देवों द्वारा सम्पादित) प्रायश्चित्त कहा जाता है जो सभी कल्मषों का नाशक है। यह महतों, वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों आदि द्वारा सम्पादित हुआ था। इस व्रत के प्रभाव से वे विरज (अपवित्रता से मुक्त) हो गये।" इस प्रकार हम देखते हैं कि यह व्रत २१ दिनों तक चलता है, क्योंकि उपर्युक्त सात वस्तुएँ तीन-तीन दिनों तक खायी जाती हैं। प्राय० प्रकाश ने एक अन्य प्रकार भी दिया है, जिसका वर्णन आवश्यक नहीं है।
धनवकृच्छ्र--देखिए वायव्य-कृच्छ। विष्णुधर्मोत्तर पुराण (प्राय० प्रकाश) के अनुसार यह व्रत एक मास
१३. विष्णुधर्मोत्तरे। बध्ना क्षीरेण तक्रेण पिण्याकाचामकस्तथा। शाकर्मासं तु कार्याणि स्वनामानि विचक्षणः॥ प्रा० प्रकाश।
१४. यवागू यावकं शाकं क्षीरं दधि घृतं तथा। श्यहं त्र्यहं तु प्राश्नीया वायुभक्षस्त्र्यहं परम् ॥ मरुद्भिर्वसुभी दरादित्यश्चरितं व्रतम्। व्रतस्यास्य प्रभावेण विरजस्का हि तेऽभवन् ॥ कुच्छ देवकृतं नाम सर्वकल्मषनाशनम् । यम (परा० मा० २, भाग २, पृ० १९१-१९२; प्राय० सार, पृ० १८३-१८४)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org