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मुण्डन (बाल कटाने) को अवस्था
१०७७ प्रज्वलित करने में, इष्टियों एवं सोमयज्ञों में दैव प्रकार का प्रयोग होता है। किन्तु प्रायश्चित्तों में कोई विशिष्ट विधि नहीं है, कोई भी विधि विकल्प रूप से प्रयुक्त हो सकती है। कई अवसरों पर शिर-मुण्डन की व्यवस्था है, यथा-तीर्थयात्रा में, प्रयाग में, माता या पिता की मृत्यु पर। व्यर्थ में शिर-मुण्डन नहीं कराना चाहिए (विष्णुपुराण, प्राय० त०, पृ० ४८९) । इन्हीं अवसरों में प्रायश्चित्तों की गणना भी होती है। बात ऐसी है कि जब कोई पाप किया जाता है तो वह बालों में केन्द्रित हो जाता है, ऐसा मदनपारिजात एवं प्राय० मयूख का कथन है।२६ गौतम (२७।२), वसिष्ठ (२४१५), बौघा० घ० सू० (२।१।९८-९९) आदि ने सिर एवं दाढ़ी-मूंछ के बालों (भ.हों, शिखा एवं कटिबन्ध के बालों को छोड़कर) के वपन की व्यवस्था दी है। कुछ अपवाद भी हैं। दक्ष ने उनके लिए जिनके पिता जीवित हैं और जिनकी पत्नियां गर्भवती हैं, शिर-मुण्डन, पिण्डदान, शव-वहन एवं प्रेत-कर्म वर्जित माना है। किन्तु यह वर्जना प्रायश्चित्तों के लिए नहीं प्रयुक्त होती। बौधायन ने स्त्रियों के प्रायश्चित्तों में सिर-मुण्डन वर्जित ठहराया है। अंगिरा (१६३), आपस्तम्बस्मृति (१३३३-३४), बृहद्यम (३।१६), वृद्धहारीत (९।३८८), पराशर (९।५४-५५), और यम (५४१५५) ने व्यवस्था दी है कि सधवा विवाहित स्त्रियों एवं कुमारियों के बाल बाँध देने चाहिए और केवल दो अंगुल बाल काट देने चाहिए। विधवाओं एवं संन्यासियों का पूर्ण शिर-मुण्डन होना चाहिए। पराशर (९।५२-५४) तथा शंख (परा० मा०, २, माग १,पृ० २९०-२९१) के मत से राजा, राजकुमार या विद्वान् ब्राह्मणों को शिर-मुण्डन के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उन्हें दूना प्रायश्चित्त करना चाहिए और दूनी दक्षिणा भी देनी चाहिए। मिता० (याज्ञ० ३।३२५) ने मनु को उद्धृत कर (यह वचन मुद्रित मनुस्मृति में नहीं उपलब्ध है) कहा है कि विद्वान् ब्राह्मणों एवं राजाओं को शिर-मुण्डन नहीं कराना चाहिए, किन्तु महापातकों एवं गोवध करने पर एवं अवकीर्णी होने पर यह नियम नहीं लागू होता। मिता० (याज्ञ० ३।२६४) ने संवर्त का हवाला देते हुए कहा है कि जब प्रायश्चित्त चौथाई हो तो गले के नीचे के बाल, जब आधा हो तो मूंछों के सहित बाल भी, जब तीन चौथाई हो तो शिखा को छोड़ सभी बाल और जब पूर्ण हो तो शिखा के बाल भी काटे जाने चाहिए। परा० माधवीय (२, भाग १, पृ० ३००) ने कहा है कि चान्द्रायण व्रत में गुप्तांगों के सहित शरीर के सभी स्थानों का वपन हो जाना चाहिए। वपन-कार्य नापित करता है, तब भी संकल्प-वचन 'वपनं करिष्ये' है न कि 'वपनं कारयिष्ये।' गौतम (२७।३) में आया है-'वपनं व्रतं चरेत्' जो चान्द्रायण के विषय में आया है, इसी से हरदत्त आदि ने अनुमान लगाया है कि कृच्छ में वपन अनावश्यक है।
प्रायश्चित्त में स्नान होता ही है और वह भस्म, गोबर, मिट्टी, जल, पंचगव्य एवं कुश डाले हुए जल से सम्पादित होता है। स्नान करने के समय जिन मन्त्रों का पाठ किया जाता है वे लिंगपुराण तथा भविष्यपुराण में एवं अन्यत्र दिये हुए हैं।
प्रायश्चित्त करते समय कुछ यमों एवं नियमों का पालन गुप्त रूप से या प्रकट रूप से करते रहना चाहिए। इस विषय में हमने याज्ञवल्क्य (३॥३१२-३१३) के वचन ऊपर पढ़ लिये हैं। अत्रि (४८-४९) ने यमों एवं नियमों को दूसरे ढंग से व्यक्त किया है। मेघातिथि (मनु ४१२०८=अत्रि ४८) ने मनु की व्याख्या यों की है—यम वर्जना (निषेध) के रूप में होते हैं, यथा-ब्राह्मण को नहीं मारना चाहिए, तथा नियम किये जाने (विधि) के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, यथा-वेद का पाठ सदा करना चाहिए (मनु ४११४७) ।
२६. यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यासमानि च। केशानाश्रित्य तिष्ठन्ति तस्मात्केशान्वपाम्यहम् ॥ इति मन्त्रमुपस्था कक्षोपस्थशिखावज क्रमेण मधूपपलकेशानुबक्संस्थान वापयेत् । यतिविधवादीनां सशिखं वपनम् । ब्रह्महस्पाविष्वपि सशिखं सर्वागलोम्नां च । प्राय० मे० (पृ० १९)।
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