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धर्मशास्त्र का इतिहास साथ विवाहित पति को दोष नहीं लगता था। देखिए वसिष्ठ (१३।५१-५३), याज्ञ० (३।२६१), बौधा०प० सू० (२।११७३-७४), हारीत (प्राय० वि० १० १७४ एवं प्राय० प्रकरण १० ११० द्वारा उद्धत) एवं इस ग्रन्थ का खण्ड ३, अध्याय २७।।
विष्णु (अध्याय ३६) ने कुछ पापों को अनुपातक की संज्ञा दी है और मनु (११।५५-५८) एवं याज्ञ० (३।२२८-२३३) ने उन्हें महापातकों के समान ही गिना है और उनके लिए अश्वमेध या तीर्थयात्रा की व्यवस्था दी है। हमने देख लिया है कि इन पापों के लिए प्रायश्चित्त थोड़ा कम, अर्थात् १/४ कम होता है।
__ अब हम उपपातकों के प्रायश्चित्तों का उल्लेख करेंगे। उपपातकों की संख्या बड़ी है और उनमें प्रत्येक का वर्णन आवश्यक नहीं है। सर्वप्रथम हम उनके विषय के कुछ सामान्य नियमों का वर्णन करेंगे और आगे चलकर कुछ महत्त्वपूर्ण उपपातकों का विधिवत् उल्लेख करेंगे। सामविधानब्राह्मण (१।५।१४) का कथन है कि व्यक्ति कई उपपातकों के करने के कारण उपवास करते हुए यदि सम्पूर्ण वेद का पाठ तीन बार कर जाय तो शुद्ध हो जाता है। मनु (११।११७), याज्ञ० (३।२६५) एवं विष्णु (३७।३५) ने व्यवस्था दी है कि सभी उपपातकों से शुद्धि (केवल अवकीर्णी को छोड़कर) उस प्रायश्चित्त से जो गोवध के लिए व्यवस्थित है, या चान्द्रायण से या एक मास तक केवल दुग्ध-प्रयोग से या पराक या गोसव से हो जाती है। निबन्धों का कथन है कि पराक उसके लिए है जो उसे करने में समर्थ है, चान्द्रायण उसके लिए है, जो दुर्बल है और गोसव उसके लिए है जो एक ही उपपातक को बार-बार करता है या एक ही समय कई उपपातकों का अपराधी होता है (प्राय० प्रकाश)।
मनु, याज्ञ० एवं अग्नि० (१६८।२९-३७) ने गोवध को उपपातकों में सबसे पहले रखा है। कतिपय स्मतियों ने गोवध के लिए विविध प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है। गौतम (२२।१८) ने इसके लिए वही प्रायश्चित्त निर्धारित किया है जो वैश्य-हत्या पर किया जाता है, यथा-वन में तीन वर्षों का निवास, भीख माँगकर खाना, ब्रह्माचर्य-पालन एवं बैल के साथ सौ गायों का दान। आप० ध० सू० (१।९।२६।१) ने दुधारू गाय या तरुण बैल की हत्या पर शूद्र-हत्या का प्रायश्चित्त बतलाया है। वसिष्ठ (२१।१८) ने कहा है कि गोवधकर्ता को उस गाय की खाल से अपने को ढंक लेना चाहिए और छ: मासों तक कृच्छ्र या अतिकृच्छ करना चाहिए। मनु (११।१०८।११६), विष्णु (५०।१६-२४), संवर्त (१३०-१३५) एवं पराशर (८।३१-४१) ने गोवध के लिए विस्तार के साथ प्रायश्चित्त-पालन की व्यवस्था दी है। याज्ञ० (३।२६३-२६४) ने चार पृथक् प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है, यथा--(१) गोघातक को अपनी इन्द्रियों पर एक मास नियन्त्रण करना चाहिए. उसे पंचगव्य पर ही रहना चाहिए, गोशाला में सोना चाहिए, दिन में उस गोशाला की गौएँ चराना चाहिए और मास के अन्त में एक गाय का दान करना चाहिए; (२) या उसे कृच्छ प्रायश्चित्त करना चाहिए, गोशाला में सोकर उसकी गायों के पीछे-पीछे दिन में चलना चाहिए; (३) या इसी प्रकार अतिकृच्छ करना चाहिए; (४) या तीन दिनों का उपवास कर अन्त में एक बैल के साथ दो गौएँ दान करनी चाहिए। शंख ने २५ दिन एवं रातों का उपवास बताया है और कहा है कि इन दिनों में पंचगव्य पर ही रहना चाहिए, शिखा के साथ सिर मुंडा लेना चाहिए, शरीर के ऊपरी भाग पर गाय की खाल पहननी चाहिए, गायों को चराना चाहिए, उनके पीछे-पीछे चलना चाहिए, गोशाला में सोना चाहिए और अन्त में एक गाय दान करनी चाहिए। कुछ
१५. गोध्नः पंचगव्याहारः पंचविंशतिरात्रमुपवसेत् सशिखं वपनं कृत्वा गोचर्मणा प्रावृतो गाश्चानुगच्छन् गोष्ठेशयो गां च दद्यात् । शंख (विश्वरूप, याज्ञ० ३।२६१; मिता०, याज्ञ० ३१२६४; हरदत्त, गौतम २२।१८; अपरार्क पृ० १०९४)। मिता० एवं हरदत्त ने यह वचन शंख एवं प्रचेता दोनों का माना है।
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