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अध्याय दूसरा।
आपने वहीं यह मंदिर बंधवाया। इससे साफ प्रगट है कि ये विजयकीर्ति हैं और इनके गुरुभ्राता सकलकीर्ति हैं। दोनोंके गुरुसुरेन्द्रकीर्ति हैं क्योंकि इसी भौं रमें एक चरणपादुका भी है जिसपर यह लेख है
" स्वस्ति श्री सं० १८१२ माघ सुदी ५ गुरौ काष्ठा...संघे.... ...............श्री विजयकीर्ति गुरुपदेशात् सुरेन्द्रकीर्ति गुरुपादुका नित्यं प्रणमति
तथा यह प्रगट है कि यह सुरेन्द्रकीर्ति सं० १७९० तक रहे विजयकीर्तिने अपने गुरुके स्मरणमें यह पादुका स्थापित करवाई. यह बात भी साफ २ प्रगट है
सुरेन्द्रकीर्तिका चित्र उसी समयका खींचा हुआ इस मंदिरजीमें पाया गया है जो पाठकोंके ज्ञान हेतु यहांपर प्रगट किया जाता है । इस मंदिरका प्रबन्ध वीसा मेवाड़ा भगुभाई चुन्नीलाल कस्तूरचंद चोखावाला करते हैं । दसा मेवाड़ाके पहले यहां १०८ घर थे परंतु वे कन्याओंके लोभसे वैष्णवोंसे मिलनेके लिये कंठी बांधकर वैष्णव हो गए तो भी उनमेंसे ८ व १० घरवाले श्री. जिनमंदिरजी दर्शनार्थ अभी भी आते हैं ।
पद्मावतीकी धातुकी प्रतिमा । "श्री मूलसंघे प्रतिज्ञा श्री श्री काय मुनींद्र ११६४ सशनीय संवत्सरे पुतमय भवतु ।'
धातुकी प्रतिमा। "सं० १४९७ मूलसंघे श्रीसकलकीर्ति हुबड ज्ञातीय शाह कर्णा भायी भोली सुता सोमा भात्री भोदी भार्या पासी आदिनाथ प्रणमति।"
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