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गुजरात देशके सूरत शहरका दिग्दर्शन [५१ विठलभ्राता मूलजी इत्यादि पुत्र पौत्रादिविह सह श्रीसीतलनाथ विम्ब नित्यं प्रणमति "
इस लेखमें लक्ष्मीसेनके बाद कई नाम रह गए हैं-विजयकीर्ति सुरेद्रकीर्तिके शिष्य थे तथा शायद इन्हींका नाम सकलकीर्ति है जो गुटके में सुरेन्द्रकीर्तिके पीछे हुए लिखे हैं अथवा यह दूसरे शिष्य हों-क्योंकि यह भी किंबदन्ती कही जाती है कि गोपीपुराके भट्टारकके दो शिष्य थे--तकरार होनेसे जो मूर्ख था उसको लज्जा आई वह विद्या पढ़नेको कर्नाटक गया और खूब विद्वान् होकर करमसदकी गद्दीका भट्टारक हो गया और सूरत आनेका विचार किया, पर गुरुबंधु जिससे झगड़ा हुआ था और जो यहां गोपीपुरामें भट्टारक था उसने सूरतके नबाबसे आज्ञा ले ली कि नर्बदाके इस पार उसको उतरने न दिया जाय । करमसदवाले भट्टारक सूरतके लिये रवाना हुए । भरुच याने भृगुपुर जब आए तब नर्बदा नदीमें नौकावालोंने उतारनेसे इनकार किया तब मंत्र आराधनकर सेत्रजी विछा इस पार आगए तब भरुचके नबाबको नौकावालोंने खबर दी। नबाब आया और इनकी विद्या देखकर क्षमा मांगी। ये आगे चलकर बरियाव आए और ताप्ती नदी उतरना चाही । यहांपर भी नाविकोंने इनकार किया तब फिर आपने मंत्र आराधा सेत्रंजी विछा नदी पारकर बरियावी भागलके द्वारपर सूरतमें आए। वहां द्वार बन्दकर दिये गए । तब फिर मंत्र आराध कर आप आकाश मार्गसे उसी स्थानपर आए जहां' पर नवापुरामें यह मेवाड़ाका मंदिर बना है । सूरतका नबाब व श्रावक आए और इनकी विद्या देखकर सबने क्षमा मांगी। तब
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