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प्रस्तावना
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वर्णन भी महाकाव्यमें आवश्यक है। अलंकारचिन्तामणिमें सर्ग-बन्धत्वका कथन नहीं है, पर जिन वर्ण्य-विषयोंका निर्देश किया गया है उनके अध्ययनसे सर्ग-बद्धता सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार सन्धि-समन्वयका कथन नहीं आया है। किन्तु उसके प्रतिपाद्य विषयोंका जैसा वर्णन है उसका सद्भाव सन्धि-समन्वयके बिना सम्भव नहीं है। यह सत्य है कि अलंकारचिन्तामणि के महाकाव्य स्वरूप में स्थापत्य-सम्बन्धी तथ्योंकी कमी है। वर्ण्य-विषयोंकी चर्चा विस्तारपूर्वक आयी है, पर.रूपगठनके सम्बन्धमें विचार नहीं किया है। भामह और अग्निपुराण दोनों हो ग्रन्थ इस दिशामें अलंकारचिन्तामणिसे आगे हैं । जहाँ तक प्रतिपाद्य विषयोंका प्रश्न है वहाँ तक अजितसेनको कोई भी अलंकारशास्त्री स्पर्श नहीं कर सका है।
कविसमयोंका वर्णन भी अलंकारचिन्तामणिका भामहके काव्यालंकारकी अपेक्षा विस्तृत है। शब्दालंकारके स्वरूप निर्धारण और विवेचनमें अलंकारचिन्तामणि भामहके काव्यालंकारसे बहुत आगे है । भामहने शब्दालंकार और अर्थालंकार मिलाकर कुल चालीसका ही स्वरूप विवेचन किया है। पर अलंकारचिन्तामणिमें शब्दालंकारके भेदोंको जोड़ दिया जाये तो दोनों प्रकारके कुल सौ अलंकारोंका स्वरूप निर्धारण आया है। इस प्रकार अलंकार विवेचनकी दृष्टिसे अलंकारचिन्तामणिमें काव्यालंकारकी अपेक्षा कई विशेषताएँ हैं। सादृश्य और साधर्म्यका शास्त्रीयकथन अलंकारचिन्तामणिमें पाया जाता है, भामहके काव्यालंकारमें नहीं।
गुण निरूपण सन्दर्भ भी अलंकारचिन्तामणिका काव्यालंकारकी अपेक्षा अधिक युष्ट है। अलंकारचिन्तामणिमें चौबीस गुणोंका स्वरूप विश्लेषण आया है। अजितसेनने गुणोंके स्वरूपनिर्धारणमें भी पदोंकी सार्थकतापर पूरा ध्यान रखा है। भामहने द्वितीय परिच्छेदके प्रारम्भमें केवल तीन कारिकाओं द्वारा गुणोंका कथन किया है। यह चर्चा इतनी अपर्याप्त है कि इससे उनकी गुणसम्बन्धी धारणाका परिज्ञान नहीं होता । गुणका क्या स्वरूप है, उसकी काव्यमें क्या उपयोगिता है तथा कान्यके अन्य तत्त्वोंके साथ उसका क्या सम्बन्ध है आदि जिज्ञासाएँ अपूर्ण ही रह जाती हैं। इन्होंने ओज, माधुर्य और प्रसाद इन तीन गुणोंका विश्लेषण किया है। संक्षेपमें यह कहा जा सकता है कि भामहके काव्यालंकारमें गुणसम्बन्धी सूक्ष्मता और गम्भीरताका अभाव है, जब कि अलंकारचिन्तामणिमें गुणोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है।
___ कविता हृदयग्राही और प्रभावोत्पादक दोषोंके अभावसे ही हो सकती है। भामहने चतुर्थ और पंचम परिच्छेदमें दोषोंका व्यापक वर्णन किया है। इन दोनों परिछेदोंमें ग्यारह दोषोंका कथन किया गया है। अलंकारचिन्तामणिके दोष प्रकरणके साथ तुलना करनेपर प्रतीत होता है कि अलंकारचिन्तामणिका यह प्रकरण अधिक वैज्ञानिक और व्यापक है। यों तो काव्यालंकारमें प्रतिपादित दोष प्रकरण भी सांगोपांग है। इसमें न्यायविरोधी दोषोंका भी निरूपण किया गया है । पर अलंकारचिन्तामणिमें पदगत और वाक्यगत दोषोंके विवेचनसे वाक्यशुद्धिपर पूरा प्रकाश डाला गया है । अर्थ
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