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अलंकारचिन्तामणिः
[५।१७२एवं रसेषु सर्वत्रोदाहार्यम् । वैदर्भीप्रभृतिरोतीनामर्थविशेषनिरपेक्षत्वेन शब्दगुणाश्रयाणां केवलरचनासौकुमार्यप्रौढत्वमात्रगोचरत्वात् कौशिक्यादिवत्तिभ्यो भेदः । असंयुक्तकोमलाक्षरबन्धोऽतिसुकुमारसंदर्भ उच्यते । परुषाक्षरविकटबन्धत्वमतिप्रौढत्वम् । संयुक्तसुकुमारवर्णत्वमोषन्मृदुत्वम् । 'ईषत्प्रौढत्वमविकट संदर्भपरुषवर्णता । शोभामाह
शोभा सिद्धोऽपि चेद्दोषो गुणसूक्त्या निषिध्यते । वृथा निन्दन्ति संसारं यत्र चक्रो प्रपूज्यते ॥१७२।। सिद्धोऽपि संसारस्य दोषो भरतेशप्रपूजागुणसंकीर्तनेन निषिध्यते । गौणागौणास्फूटत्वेभ्यो व्यंग्यार्थस्य निगद्यते। काव्यस्य तु विशेषोऽयं त्रेधामध्यो वरोऽधरः ।।१७३।।
व्यंग्यस्यामुख्यत्वेन मध्यमकाव्यं गुणोभूतव्यङ्गयमित्युच्यते । प्राधान्ये उत्तमं काव्यं ध्वनिरितोष्यते । अस्फुटत्वे अधमं तत् चित्रमिति निरूप्यते । तथाहि
इसी प्रकार सभी रसोंमें उदाहरण देना चाहिए । शब्द तथा गुणमें विद्यमान वैदर्भी इत्यादि रीतियां अर्थ विशेषको अपेक्षा नहीं रखती हैं और शब्द तथा गुणमें आश्रित कोशिको इत्यादि वृत्तियाँ केवल रचनाको सुकुमारता और प्रौढ़ताका बोध कराती हैं, यही रीति और वृत्तियोंमें भेद है। संयोगरहित कोमल अक्षरोंसे विरचित रचनाको अतिसुकुमार सन्दर्भ कहा जाता है। कर्कश अक्षर और विकट रचनाको अति प्रौढ़ सन्दर्भ कहते हैं। संयुक्त और सुकुमार वर्णवाली रचनाको ईपत् मृदु कहते हैं। थोड़ी प्रौढ़ता और अविकट रचनाको परुष रचना कहते हैं। शोमा और उसका उदाहरण
___ जहाँ युक्तियोंसे सिद्ध भी दोष गुणकी सूक्तिसे निषिद्ध कर दिया जाता है, उसे शोभा कहते हैं । जैसे--जिस संसारमें चक्रवर्ती भरत पूजे जाते हैं उस संसारको व्यर्थ ही लोग निन्दा करते हैं ॥१७२॥
यहाँ सिद्ध भी संसारका दोष भरत चक्रवर्तीको पूजाके कथनसे निषिद्ध होता है। काव्यके भेद
व्यंग्याथके अप्रधान, प्रधान और अस्पष्ट रहनेके कारण काव्यके क्रमशः मध्यम, उत्तम और जघन्य ये तीन भेद कहे गये हैं ॥१७३॥
__ व्यंग्यार्थके मुख्य न होनेपर मध्यम या गुणीभूत व्यंग्य; व्यंग्यार्थके मुख्य रहनेपर उत्तम या ध्वनिकाव्य और व्यंग्यार्थके अस्पष्ट रहनेपर अधम या चित्रकाव्य कहा जाता है। १. प्रौढत्वमिति विकट-ख । २. भरतेश प्रजागुण-क । भरतेशपूजागुण-ख । ३. वरोऽवरः -ख । ४ खप्रतौ-मध्यमकाव्यं गुणीभूत इत्यस्यानन्तरं व्यङ्गयत्वं तदनन्तरं चन्द्रस्य निष्फला....१७५ तमं छन्दो वर्तते । मध्यस्य पाठः न विद्यते ।
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