________________
३२३
-३७३ ]
पञ्चमः परिच्छेदः आलि यामो गतो नाथस्तथाप्यायाति नाधुना। याम उत्तिष्ठ विश्वासः कोऽस्ति वञ्चकपूरुष (षे) ॥३७०॥ सौधोपरि स्थितवती सकरस्थगण्डा दूरान्तरस्थपतिमात्मनि चिन्तयन्ती।। तत्पाणिपीडितकुचां च तदङ्कनिष्ठां स्वां मन्यते पतियुतां वियुतापि तन्वी ॥३७१॥ अव्यलीकविलम्बेशे विरहोत्कण्ठिता यथा । सर्तु सारयितु वेच्छुर्यथा सा चाभिसारिका ॥३७२।। 'दूति प्रेयान् परिगतनटीदृग्वटीभिः प्रबद्धो नूनं नो चेत् प्रसरति विधो कोमुदी द्रावयान्तीम् । प्रद्युम्नेन्दूपलमुरुतरस्फारगन्धे प्रवाति मन्दं मन्दं मरुति शिशिरे किं विलम्बेत कान्तः ॥३७३।।
विप्रलब्धाका उदाहरण
हे सखि, एक प्रहर बीत गया, तो भी अभी प्रियतम नहीं आया । हे ठगपुरुष, हम चलें, उठो वंचक पुरुषमें क्या विश्वास हो ! ॥३७०।। प्रोषितमर्तृकाका उदाहरण
सुन्दर हथेलीपर गालको रखी हुई तथा कोठेपर स्थित विरहिणी तन्वी कोई नायिका दूर गये हुए अपने पतिका चिन्तन करती हुई, उसके हाथसे दबाये हुए स्तनवाली तथा उसकी गोदमें उपविष्ट अपनेको संयोगिनी मानती है ॥३७१॥ विरहोत्कण्ठिता और अभिसारिका
वस्तुत: किसी कारणवश पतिके परदेशमें विलम्ब करनेपर विरहोत्कण्ठिता तथा स्वयं प्रियतमके पास में जाने या उसे बुलानेकी इच्छावाली नायिकाको अभिसारिका कहते हैं ।।३७२।। विरहोस्कण्ठिताका उदाहरण
कोई विरहोत्कण्ठिता अपनी दूतीसे कह रही है-हे दूति ! हमारा प्रियतम चारों ओर रहनेवाली नारियोंकी दृष्टिरूपी मजबूत रस्सियोंसे निश्चय ही बांध लिया गया है; नहीं तो कामरूपी चन्द्रकान्तमणिको द्रवित करनेवाली चन्द्रकिरणके साथ चन्द्रमाके इस प्रकार उदित होने तथा बहुत अधिक गन्धवाले शीतलवायुके मन्द-मन्द चलनेपर इस समय प्रियतम विलम्ब क्यों करता ? अर्थात् तुरन्त आ जाता ॥३७३॥
१. वञ्चकपूरुषे-ख । २. दूती....ख । ३. द्रावयन्तीम्-ख । Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org