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-४०३] पञ्चमः परिच्छेदः
३३३ कार्ये स्वल्पोऽप्यलंकारो विच्छित्तिस्तुष्टिकृद्यथा। तस्या अलक्तरचितं मकर कपोले 'तद्योजतोऽन्तरितरागमुदुद्गतं वा । दृष्ट्वान्तरङ्गपरितोषगतश्चुचुम्ब प्रेमातिरेकमधुराधरर्मुत्पलाक्ष्याः ॥४०२१॥ यन्नोक्तं वोडया वाच्यमपि तद् व्याहृतं यथा । एणाक्षी लोलतारे मयि च शबलिते निक्षिपन्ती सुनेत्रे पौनःपुन्येन लज्जास्मितनतवदना सामिभिन्नस्फुटोष्ठम् । जिह्वाग्रोक्तिं दधाना भुवमपि चरणाङ्गुष्ठतः सल्लिखन्ती स्वान्तस्थं तद्दुनोति स्वहृदयमपि मे न ब्रवीति स्फुरन्ती ॥४०३॥
विच्छित्ति
आवश्यकता पड़नेपर थोड़े ही आभूषणोंसे सन्तोषजनक कार्य हो जावे, तो उसे विच्छित्ति कहते हैं।
उदाहरण
किसी नायिकाके कपोलपर महावरसे बनाया हुआ मकरका आकार और उसकी रचनासे प्रकट रागको देखकर अत्यन्त भीतरी आनन्दवाले किसी नायकने प्रेमाधिक्यसे उस कमलनयनाके अत्यन्त मधुर अधरका चुम्बन किया ॥४०२।।
व्याहृत
अत्यन्त आवश्यक और कहने योग्य बात भी जब लज्जाकी अधिकताके कारण नहीं कही जाये, तो उसे व्याहृत कहते हैं ।
उदाहरण
कोई मृगाक्षी चंचल पुतलीवाले तथा चित्र-विचित्र नयनोंको मुझपर फेंकती; बार-बार सलज्ज-सहास, झुके हुए मुखवाली, अधखुले हुए अधरोंपर तथा जिह्वाके अग्रभागपर कहने योग्य बातको धारण करती, पैरके अंगूठेसे पृथ्वीको खोदतो; पर अपने भीतर रही हुई हृदयकी बातको मुझसे नहीं कहती, अतएव मेरे मनको बहुत कष्ट दे रही है ॥४०३॥
१. तद्व्याजतो-क । २. -मुत्पलाक्ष्याः क ख । ३. विहृतम् -क । ४. संलिखन्ती-ख ।
५. स्वन्तस्थम् -ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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