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पञ्चमः परिच्छेदः संभ्रमाद्विभ्रमो भूषाव्यत्ययः पुरुषागमे । निशम्य कान्तं बहिरागतं तं मञ्जीरयुग्मं करयोश्च काञ्चीम् । कण्ठे च हारं सुकटीतटे सा । भालेऽञ्जनं दृक्तिलकं करोति ॥३९६॥ कुप्येत्तुष्टान्तरालिङ्गमुखे 'कुट्टिमितं यथा । आलिंगन्तं घटकुचयुगं वक्षसीवातिलीनं चुम्बन्तं तं भ्रुकुटिरुचिरा वारयन्ती कराभ्याम् । अन्तस्तुष्टा बहिरुरुरुषा मान्मथं व्यञ्जयन्ती स्वं भावं सा भवति पुलकैः फुल्लराजीवनेत्रा ॥३९७॥ मतिस्तत्त्वेन चित्रादावपि मोट्टायितं यथा । साङ्गभंगादि वा नाथं स्मृत्वा मोट्टायितं यथा ॥३९८॥
विभ्रम
प्रियतमके आगमनादिके कारण हर्षवश नायिका द्वारा श्रृंगार करना मल वस्त्रादिको विपरीतक्रमसे धारण करनेको विभ्रम कहते हैं। उदाहरण
प्रियतमको बाहरसे आया हुआ सुनकर कोई नायिका हाथों में दो मंजीरोंको, गले में रशनाको, कमरमें हारको, ललाटपर अंजनको और आँखोंमें तिलकको लगा रही है ॥३९६॥ कुट्टमित
केवल दिखावटके लिए जो नायिकाके द्वारा निषेध-नहीं-नहीं कहा जाता है, उसे कुट्टमित कहते हैं। उदाहरण
प्रियतमके द्वारा कुचकलशोंके आलिंगन करनेपर वह प्रियके वक्ष.स्थल में लीन हो जाती है, नायकके चुम्बन करनेपर वह नायिका भौंहोंको टेढ़ाकर हाथोंसे निवारण करतो हुई भीतर प्रसन्न होती है और ऊपरसे रोनेको इच्छावाली रोमांचोंसे अपने कामभावको प्रकट करती हुई विकसित कमलनयना हो जाती है ॥३९७॥ मोडायित
प्रियतमाको चित्र इत्यादिमें देखनेपर उसे वस्तुतः समझ अंग आदि तोड़ना,
१. कुट्टमितम्-ख । Jain Education International
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