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अलंकारचिन्तामणिः
[५।३९३ . अपास्तोरुधैर्या मरालोरुयाना स्मरं पद्मिनी स्वं बभी व्यञ्जयन्ती ॥३९३।। मसृणं सुकुमारोऽङ्गविक्षेपो ललितं यथा। पुष्पाञ्जलि स्फुरदपाङ्गमुपक्षिपन्ती श्रीहस्तपल्लवविवर्तनतो लपन्ती पादारुणाम्बुजयुगं भुवि विक्षिपन्ती भ्रूभंगमादिवयसा नृपमालुलोके ॥३९४।। शुक्रुद्रोषादिसांकयं यथा तु किलकिंचितम् । द्यूते भर्ना जिते च्यावितवसनकुचादर्शनेनास्य चित्तं भ्रान्तं कृत्वा विजिग्ये पुनरपि विजिते सावधानेन भी । कोपारक्ताक्षिवीक्षा भ्रमितपतिमना जेतुकामा लताजी
तेनैवास्मिन् जिते सा रुदितनतमुखी तुष्टिगास्यं लुलोके ॥३९५॥ भ्रमरोंकी झंकारसे रम्य, अधिक धैर्यको छोड़ देनेवाली तथा हंसके समान सुन्दर चालवाली और अपने काम भावको प्रकट करती हुई पद्मिनी-नायिका सुशोभित हुई ॥३९३॥ ललित- अंगोंकी सुकुमारता, स्निग्धता, चांचल्य इत्यादिको ललित कहते हैं । उदाहरण
कम आयुवाली किसी नायिकाने चमकते हुए नयनकोणके साथ, पुष्पांजलिको ऊपर फेंकते हुए, सुन्दर हस्तकमलको नचाते हुए वार्तालापमें संलग्न, पृथ्वीपर चरणकमलोंको रखती हुई, भ्रूविक्षेप पूर्वक राजाको देखा ॥३९४॥ किलकिञ्चित
शोक, रोदन और क्रोध आदिके सांकर्यको किलकिंचित कहते हैं ।
उदाहरण
पतिके द्वारा चूतमें जीते जानेपर गिराये हए वस्त्रसे पयोधरोंको दिखाकर पतिके मनको अनुरंजितकर जीत लिया। पुनः सावधानी पूर्वक खेलकर नायकने उसे जीता, तब कोपके कारण रक्तनेत्रोंसे देखने वाली तथा पतिके मनको भ्रान्तकर जीतनेकी इच्छावाली वह नायिका लताके समान काँपने लगी । पुनः नायकके जीतनेपर रुदित तथा नीचे मुख को हुई वह नायिका सन्तुष्ट होकर उसका नायकका मुख देखने लगी ॥३९५॥
१ द्यूते-ख।
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